भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
अतः मालूम होता है कि यह मेरे इस बालक का ही कोई विलक्षण आत्मयोग है। उस जगह उन्होंने कहा है- “अथो अमुष्यैव ममार्भकस्य यः कश्चनौत्पत्तिक आत्मयोगः।” यहाँ जो ‘यः कश्चन’ पद है, वह उस आत्मयोग की अनिर्वचनीयता द्योतित करने के लिये है। ठीक यही बात अद्वैतवादी भी मानते हैं। यहाँ ‘यःकश्चन’ कहने का क्या तात्पर्य है? हम पूछते हैं कि यह आत्योग भगवान से भिन्न है या अभिन्न? यदि भिन्न है, तब तो अद्वैत न रहा और यदि अभिन्न है तो भगवान की तरह यह कूटस्थ होगा और कूटस्थ होने पर प्रपंचोत्पादन में समर्थ नहीं होगा। इसलिये इसे, न भिन्न कह सकते हैं और न अभिन्न ही। अतः वह भगवान से अव्यतिरिक्त होने पर भी भगवान के दिव्यातिदिव्य विग्रह के प्रादुर्भाव का कारण है। इसलिये इस विषय में कोई विशेष मतभेद नहीं है। इससे सिद्ध हुआ कि भगवान ने जो उसी समय रमण करने की अनुमति न देकर एव वर्ष का व्यवधान किया, उसका यही तात्पर्य था कि वे एक साल मेरी प्रतीक्षा में रहकर रसमय विग्रह प्राप्त करें। भगवान के सौन्दर्य-माधुर्यादि अप्राकृत हैं; अतः प्राकृत इन्द्रियाँ उन्हें ग्रहण नहीं कर सकतीं। उन्हें ग्रहण करने के लिये तो अप्राकृत देह और इन्द्रियों की आवश्यकता है। किन्तु उस अप्राकृत रसमय शरीर की क्रमशः अभिवृद्धि होती है। प्राणी जितनी ही मात्रा में भगवदनुसन्धान में तत्पर होता है, उतनी ही उसके रसमय शरीर की पुष्टि होती जाती है और प्राकृत शरीर का क्षय होता जाता है। जिस समय वह पूर्णतया भगवन्निष्ठ हो जाता है उस समय उसे पूर्णतः रसमय शरीर की प्राप्ति हो जाती है और भौतिक शरीर नष्ट हो जाता है। कात्यायनी-पूजन से गोपांगनाओं के रसमय शरीर का आरम्भ तो हुआ, किन्तु उसकी ठीक पूर्णता नहीं हुई थी। इसीलिये भगवान ने ऐसा नियम किया। जिस समय इष्ट वस्तु सुलभ मालूम होने लगती है। उसी समय उसकी प्राप्ति की उत्सुकता बढ़ती है। कात्यायनी-पूजन के समय गोपांगनाओं को भगवान सुलभ नहीं जान पड़ते थे; इसी से उनके प्रति उनका उत्कट प्रेम भी नहीं था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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