भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इन सब आपत्तियों का वेदान्ती इस प्रकार उत्तर देते हैं- प्रकृति में ज्ञान (ईक्षण) नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें जिस प्रकार ज्ञान का हेतु सत्त्वगुण है उसी प्रकार उसका निरोध करने वाला तमोगुण भी है। अतः केवल चेतन में ही ईक्षण हो सकता है, क्योंकि वह ज्ञानस्वरूप है। इस प्रकार यद्यपि उसमें नित्यज्ञान ही सिद्ध होता है तथापि आगन्तुक विषय के संसर्ग से उसका आगन्तुक होना भी सम्भव है ही। जैसे नित्य प्रकाशस्वरूप सूर्य में आगन्तुक प्रकाश्य के संसर्ग से सूर्य प्रकाशित करता है, इस प्रकार आगन्तुक प्रकाशन का व्यप देश होता है। यहाँ जो प्रकाश्य है वह अनादि और अनिर्वाच्य तत्त्व है। सांख्यवादी की गुणमयी प्रकृति भी उसी के अन्तर्गत है। परन्तु भगवच्छक्ति परम दिव्य और शुद्ध है तथा मूलप्रकृति त्रिगुणमयी एवं जड़ है। देखो, एक वृक्ष के बीज में कितनी शक्तियाँ रहती हैं। उसमें अति कठोर कण्टकजनन की भी शक्ति है और अत्यन्त मनोज्ञ सौन्दर्य-माधुर्यमय पुष्प उत्पन्न करने की भी। इन दोनों प्रकार की शक्तियों में कोई विलक्षणत है या नहीं? जिस प्रकार इन दोनों शक्तियों में महान अन्तर है, उसी प्रकार सुख-दुःख-मोहात्मक जगत की उत्पत्ति करने वाली गुणमयी शक्ति और अति अलौकिक दिव्य मंगल विग्रह को व्यक्त करने वाली लीलाशक्ति में भी बहुत बड़ा अन्तर है। यदि उनमें अन्तर नहीं था तो जिन सनकादि को प्रपंच की कारणभूता कोई भी शक्ति मोहित नहीं कर सकती थी, उन्हें भगवान के चरण-कमलों से लगी हुई तुलसी की दिव्य गन्ध ने क्यों मोहित कर दिया? अतः सिद्ध यह हुआ कि दिव्य भगवद्विग्रह को प्रकट करने वाली लीलाशक्ति परा है और जगदुत्पादिनी गुणमयी शक्ति अपरा है। इससे अद्वैतवाद में भी कोई भेद नहीं आता। जिस प्रकार जल में तरंगें रहती हैं और उनका जल से अभेद रहता है, उसी प्रकार ब्रह्म में भी पराशक्ति अभिन्नरूप से रहती है। यह बात शुद्धाद्वैतियों को भी अभिमत है। जब उनसे पूछते हैं कि भला, शुद्ध ब्रह्म से जगत की उत्पत्ति कैसे हुई, तो वे कहते हैं कि भगवान में एक अघटित-घटनापटीयान आत्मयोग है, उसी से प्रपंच की उत्पत्ति होती है। इस बात को सिद्ध करेन के लिये वे श्रीयशोदा जी के इस वाक्य का प्रमाण देते हैं। जिस समय माता को यह दिखाने के लिये कि मैंने मिट्टी नहीं खायी, भगवान ने अपना मुँह खोलकर दिखलाया तो उसमें नन्दरारनी को सारा ब्रह्माण्ड दिखाई दिया। यह देखकर वे बड़ी आश्चर्यचकित हुईं और सोचने लगीं कि यह क्या भेद है। क्या मुझे ही कोई भ्रम हो गया है, अथवा कोई राक्षसों का उपद्रव है? ऐसी कोई बात तो है नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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