भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
जिस समय भगवान ऊखल में बँध गये थे उस समय ऐसा कहा गया है- ‘बबन्ध प्राकृतं यथा’। यहाँ ‘प्राकृतं यथा’ इस उक्ति का क्या तात्पर्य है? इसका यही रहस्य है कि भगवान प्राकृत-भिन्न हैं। गीता में भगवान ने कहा है-
इस प्रकार जब स्वयं भगवान ही कह रहे हैं कि जो पुरुष मेरे दिव्य जन्म कर्म को जानता है, वह पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता; तो भगवान की अप्राकृतता के विषय में किसी सन्देह का अवकाश ही कहाँ है? वामन पुराण का वचन है-
इसी प्रकार की और भी बहुत सी उक्तियों से सिद्ध होता है कि भगवान का दिव्य मंगलविग्रह अप्राकृत ही है। जो लोग युक्तिवाद से उसे अनित्य या भौतिक सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं उन्हीं से श्रीविश्वनाथ चक्रवर्ती कहते हैं- ‘ये तु भगवतो विग्रहं लक्ष्यीकृत्य युक्तिशरानादित्सवस्ते घोरे नरके निपतिष्यन्ति अलं तैः सहालापेन।’ अर्थात जो लोग भगवान की दिव्य मंगलमयी मूर्ति को लक्ष्य करके युक्तिरूप बाणों को ग्रहण करना चाहते हैं वे घोर नरक में गिरेंगे, उनके साथ बात करने की भी आवश्यकता नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज