भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
भगवान कहते हैं- “निर्गुणं मां गुणाः सर्वे भजन्ति निरपेक्षकम्” इस प्रकार गुणों ने यद्यपि अपनी सिद्धि के लिये ही भगवान का आश्रय लिया है और भगवान ने भी उन पर कृपा करके उन्हें स्वीकार कर लिया है तथापि इसका काई अन्तरंग प्रयोजन भी होना ही चाहिये। वह प्रयोजन यही है कि लोग उन अचिन्त्य गुणगण विशिष्ट भगवान की आराधना करेंगे और उन्हें गुणों की प्राप्ति होगी। इसी से श्रीशुकदेव जी ने इस लीला के विघ्नों की निवृत्ति के लिये ‘भगवान’ शब्द से मंगलों का भी मंगल किया है। इसके सिवा उन्होंने यह भी सोचा होगा कि यह लीला अत्यन्त दुरवगाह्य है, हम इसका अवगाहन करने में समर्थ नहीं हैं; परन्तु भगवान का स्मरण करने से हम इस दुरवगाह्य का भी अवगाहन कर सकेंगे। भगवत्स्मरण से हमें भगवदैश्वर्य की प्राप्ति होगी और उससे हमें इसके वर्णन का सामर्थ्य प्राप्त होगा तथा लोक में यह भी देखा जाता है कि वक्ता की रुक्षता के कारण एक अत्यन्त मधुर प्रसंग भी रूखा जान पड़ता है और वक्ता के माधुर्य से ही किसी रूखी बात में भी सरसता आ जाती है। इसी से कहा है- ‘कवीनां रसवद्वचः’। हम पहले कह चुके हैं कि भगवान शुकदेव जी को स्वयं श्री वृषभानुदुलारी और भगवान श्यामसुन्दर ने अपनी अधरसुधा का पान कराकर पढ़ाया था। उस युगलमूर्ति के अधरामृत पान से उनकी वाणी में कितना माधुर्य आ गया था, इसका कौन वर्णन कर सकता है? फिर भी प्रसंग को दुरवगाह्य समझकर उन्होंने भगवान का स्मरण किया। इस प्रकार ‘भगवान’ शब्द से यह तो मंगल और वक्ता का तात्पर्य-सूचन हुआ। परन्तु ‘भगवान’ शब्द का यह अर्थ तो ऐसा है जैसे किसी अन्य कार्य के लिये लाये हुए जल के घड़े को देखकर उसे शुभ शकुन का सूचक मानकर देखने वाले को आनन्द होता है। इसका मुख्य प्रयोजन तो दूसरा ही है। अब हम रासपंचाध्यायी के प्रथम श्लोक की व्याख्या आरम्भ करते हैं-
सरलार्थ-उन रात्रियों में शरत्कालीन मल्लिका को विकसति हुई देखकर भगवान ने भी योगमाया का आश्रय ले रमण के लिये मन किया। विचार करने पर मालूम होता है कि इस श्लोक का तात्पर्य विरोधद्योतन में है। रमण करने की इच्छा तो अनाप्तकामों को हुआ करती है। किन्तु जबकि यद्यपि भगवान ब्रह्म एवं परमात्मा स्वरूपता तो एक ही हैं, परन्तु इन शब्दों से उसके विशेष-विशेष पक्षों का द्योतन होता है। यहाँ ‘भगवान’ शब्द अवश्य रमण के साथ विरोध प्रदर्शन के लिये ही है। भगवान के चरणारविंद मकरंद का रसास्वादन करने वाले तत्त्वज्ञ भी आत्माराम हुआ करते हैं अर्थात वे भी रमण के लिये आत्मातिरिक्त साधन की अपेक्षा नहीं करते तो भगवान को रमण करने की इच्छा की तो अवश्य यह बहुत विरुद्ध बात है। रमणकर्ता की भगवान और भगवान का रमण करना दोनों ही सर्वथा अनुपपन्न हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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