भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
ब्रह्म निरतिशय बृहत् है। बृहत्ता की कल्पना करते-करते जहाँ तुम शान्त हो जाओ वह ब्रह्म है। और सान्निध्य के द्वारा तुम जिस अतिशयता का आधान करना चाहते हो उसे तो हम सर्वदेशी मानते हैं। यदि कहो कि जिस प्रकार ‘सर्वे ब्राह्मणा भोजयितव्याः’-समस्त ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये इत्यादि वाक्यों में समस्त पद से केवल निमन्त्रित ब्राह्मण ही ग्रहण किये जाते हैं उसी प्रकार यहाँ भी कुछ संकोच कर लिया जायगा, तो ऐसा कहना ठीक नहीं, क्योंकि वहाँ संसार के सम्पूर्ण ब्राह्मणों को भोजन कराना अभिप्रेत ही नहीं है; अतः संकोच तो केवल वहीं किया जाता है जहाँ कोई संकोचक प्रमाण होता है। जो वस्तु देशपरिच्छिन्न, कालपरिच्छिन्न अथवा वस्तुपरिच्छिन्न होती है उसी में संकोच किया जाना सम्भव है। निरतिशय वस्तु में कोई परिच्छेद नहीं होता, इसलिये उसमें संकोच भी नहीं किया जा सकता- “यत्र नान्यत्पश्यति नान्यच्छृणोति, नान्यद्बिजानाति स भूमाथ यत्रान्यत्पश्यत्यन्यच्छृणोत्यन्यद्विजानाति तदल्पम्।” अतः ये ‘भग’ निरतिशय भगवान में किसी सौख्यातिशय या महत्त्वातिशय का आधान नहीं कर सकते। भगवान में किसी प्रकार के अनर्थ की सम्भावना नहीं अतः अनर्थ-निवृत्ति में भी गुणों का उपयोग नहीं हो सकता। भगवान ने यह ऐश्वर्य भक्तों के लिये ही धारण किया है। उनकी यह काम-विजयलीला भी भक्तों के ही लिये थी। इसलिये भगवान जो अचिन्त्यानन्त कल्याणगुणगण धारण करते हैं वे उपासकों के लिये ही हैं, जिससे कि उनकी उपासना द्वारा वे उन गुणों को प्राप्त कर सकें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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