भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
आनन्द-वृन्दावन-चम्पू में एक बड़ी सुन्दर कथा है कि श्रीवृषभानुनन्दिनी के सन्निधान में एक कलवाक नामक शुक रहता था। श्रीरासेश्वरी जी मणि पंजर से उस शुक को निकाल कर अपने श्रीहस्तारविन्द पर बिठला कर उसे दाड़िमी बीज खिलाती थीं। एक दिन शुक को दाड़िमी बीज खिला रही थीं कि दुष्प्राप्य श्रीकृष्णचन्द्र में उत्कट प्रीति और भूयसी लज्जा और गुरुक्ति-विपवर्षणों से मति की विकलता, अपने वपु की परवशता और कुलीनवंश में जन्म आदि सोचते-सोचते श्री श्रीरासेश्वरी के मुखारविन्द से यह श्लोक निकल पड़ा-
शुक ने इस श्लोक को धारण कर लिया और श्रीवृषभानुदुलारी के श्रीहस्तकमल से उड़कर जहाँ श्रीव्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण खेल रहे थे, वहीं एक वृक्ष की शाखा पर बैठकर ‘दुरापजनवर्तिनी रतिः’ इसी श्लोक को पढ़ा। श्रीकृष्ण ने शुक के मुख से विनिःसृतः श्लोक को श्रवण कर आश्चर्य से यह किसी ‘महानुरागवती’ का शुक है, यह जानकर बड़े मधुर शब्दों में शुक से अपने समीप आने का अनुरोध किया। शुक शाखा पर से उड़कर श्रीकृष्ण के श्रीहस्तकमल पर बैठ गया। श्रीश्यामसुन्दर ने पुनः श्लोक पढ़ने को कहा, शुक ने फिर उसी श्लोक को सुनाया। अपनी प्रेयसी श्रीवृषभानुदुलारी के प्रिय शुक द्वारा उनकी विरह-व्यथा से समन्वित भावमय श्लोक को धारण करके श्रीकृष्ण बड़े प्रसन्न हुए और शुक को धन्यवाद देने लगे। शुक ने कहा-श्रीव्रजराजकुमार गाढ़ानुराग के भार से निर्भरभंगुरा, बड़े स्नेह से “श्रीकृष्ण” “श्रीकृष्ण” इस मधुमय नाम को पढ़ाती हुई अपनी स्वामिनी के कराम्बुरुह से मैं तो चंचलतावश च्युत हो गया हूँ, मुझ अधन्य को आप कैसे धन्य कहते हैं?
इतने में ही श्रीकृष्ण का सखा कुसुमासव आ गया। वह भी शुक की वाग्मिता पर मुग्ध हुआ। इसी समय वृषभानुनन्दिनी की सहचरी मधुरिका शुक को ढूँढ़ती हुई वहाँ आयी और कुसुमासव के पूछने पर कहने लगी कि अपनी स्वामिनी का क्रीड़ा शुक ढूँढ़ने के लिये मैं आयी हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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