भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इस प्रकार जब शुकतुण्डच्युत श्रीमद्भागवत ही पेय है, तो उसकी सारातिसारभूत रसपंचाध्यायी के विषय में तो कहना ही क्या है? यही ‘शुक उवाच’ का गूढ़ रहस्य है। इसके सिवा व्रज में हमने एक और बात भी सुनी थी। वहाँ के लोग कहा करते हैं- ‘महाराज, महल की बात माहिलिहि जाने।’ अर्थात् महल के भीतर क्या-क्या होता है? इस रहस्य को तो महल के भीतर रहने वाले ही जान सकते हैं; बाहर जो घास खोदने वाले है उसे अन्तःपुर की बातों का क्या पता लग सकता है यह रासक्रड़ी भगवान की परम अन्तरंग लीला है। इसका मर्म तो वे ही जान सकते हैं जो श्रीराधारानी और नन्दनन्दन के अत्यन्त कृपापात्र हैं; अन्य निष्ठा वाले इसका रहस्य नहीं समझ सकते। अतः इसका वक्ता भी वही हो सकता है, जो परम अन्तरंग हो। अतः यह देखना चाहिये कि इसका वक्ता कौन है? कोई कितना ही आत्मनिष्ठ हो, किन्तु यदि वह इस रस से अनभिज्ञ हो तो कम-से-कम रसिकों की प्रवृत्ति तो उसके वाक्य-श्रवण में हो नहीं सकती। अतः यह देखना चाहिये कि इसके वक्ता का रस में प्रवेश है या नहीं। इस पर वे कहते हैं- ‘श्रीशुक उवाच’ यहाँ जो शुक हैं वे श्रीवृषभानुनन्दिनी के क्रीड़ा शुक हैं। जिस समय श्रीनन्दनन्दन उनके पास से चले जाते थे उस समय श्रीरासेश्वरी जी इन्हें पढ़ाय करती थीं- ‘कृष्ण कहु, कृष्ण कहु, राधा मति कहु रे’। वे अपने अमृतमय अधरपट से इनकी चंचु को चुम्बन कर इन्हें भगवत्लीलाओं का पाठ पढ़ाया करती थीं। भावुकों का ऐसा कथन है कि भगवान श्रीकृष्ण की कृपा का पात्र वही होता है जिस पर श्रीवृषभानुसुता की कृपा होती है; उनकी कृपा, ललितादि प्रधान यूथेश्वरियों के कृपापात्रों पर हुआ करती है और ललितादि की कृपा, अपनी नित्य सहचरियों के कृपापात्र आचार्यों के कृपाभाजनों पर होती है। फिर जिनका चंचु स्वयं श्रीवृषभानुनन्दिनी की अधरसुधा से चुम्बित होता था उन श्रीशुक के मुखारविन्द से निःसृत इस लीला के माधुर्य का तो कहना ही क्या है। अहो! जिनके अधरामृत का संयोग होने के कारण उनका किया हुआ वेणुनाद सम्पूर्ण चराचर जीवों को मन्त्रमुग्ध कर देता था, वे रसराज-शिरोमणि श्रीमाधव भी जिसके लिये लालायित रहते थे उस श्रीवृषभानुनन्दिनी की अधरसुधा की माधुरी का वर्णन कौन कर सकता है? फिर उन श्रीवृषभानुनन्दिनी की अधरसुधा से पोषित परमहंस-शिरोमणि श्रीशुकदेव जी से अधिक रसिक और कौन होगा? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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