भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
किन्तु यहाँ जो ऐसा कहा है कि ‘हृद्रोगमाश्वपहिनोत्यचिरेण धीरः’ इससे यह भी सिद्ध होता है कि कामरूप हृद्रोग के रोगी भी इसका श्रवण कर सकते हैं। परन्तु वे कम-से-कम उस हृद्रोग से मुक्त होने के पूर्ण इच्छुक तो होने ही चाहिये, विषयी होने पर तो उनका उद्धार हो नहीं सकेगा। उन्हें भी इसे ऐसे वक्ता से श्रवण करना चाहिये जो पूर्ण तत्त्वनिष्ठ हो तथा जो श्रोता के कामभाव की निवृत्ति करने में सर्वथा समर्थ हो। तब तो अवश्य इसके द्वारा भगवान के प्रति स्थायी रति का आविर्भाव होगा और उस भगवद्रति के कारण काम का कदापि प्रभाव न होगा। पहले यह कहा जा चुका है कि इस प्रकरण के आरम्भ में जो ‘श्रीबादरायणिरुवाच’ है उसका क्या रहस्य है। किन्तु किसी-किसी प्रति में इसके स्थान पर ‘श्रीशुक उवाच’ भी है। भगवान शुक की तत्त्वज्ञता सुप्रसिद्ध है और इधर श्रोता भी सर्वसाधन-सम्पन्न कुरुकुल-भूषण महाराज परीक्षित हैं। यदि ऐसे श्रोता-वक्त हों, तो अवश्य इसका महान फल हो सकता है। ‘शुक उवाच’ इस वाक्य का एक और भी तात्पर्य हो सकता है। प्रायः शुकतुण्ड से सम्बन्धित होने पर फल में और भी अधिक मधुरता आ जाती है। इसी से कहा है-
जिस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषद्रूप गौओं का अमृतमय दुग्ध होने से ही परम आदरणी है उसी प्रकार यह भागवत पुराण भी वेदमूलक होने के कारण ही प्रमाण है। यह साक्षात कल्प वृक्ष का फल है और वह कल्प वृक्ष भी प्राकृत नहीं, बल्कि स्वयं शब्द-ब्रह्मरूप वेद है और यह उससे तोड़ा हुआ भी नहीं है, इसलिये इसके विषय में कच्चे या अम्ल होने की भी आशंका नहीं की जा सकती। यह तो स्वयं पक कर गिरा हुआ है। इसलिये इसमें अत्यन्त मधुरता और सुगन्ध आ गयी है। इस पर भी शुक के मुख का संयोग हो जाने से तो यह और भी अधिक सरस हो गया है। इसी से कहा है ‘पिबत’, इसे पिओ। यद्यपि फल खाया जाता है, परन्तु इसे तो पीने के लिये कहा है। इसका तात्पर्य यही है कि अन्य फलों के समान इसमें गुठली या छिलका आदि कोई हेय अंश नहीं है, क्योंकि यह तो एकमात्र सुमधुर रसस्वरूप ही है। इसलिये इसका पान ही करना चाहिये। कब तक पान करें? ‘आलयम्’ अर्थात मोक्ष पाकर भी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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