भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
किन्तु, यहाँ यह सन्देह हो सकता है कि कामलीला का वर्णन या श्रवण करने से काम विजय कैसे होगा? इसका उत्तर यह है कि यह कामलीला नहीं, बल्कि काम-विजयलीला है। इसके श्रवण और कीर्तन द्वारा कामविजयी भगवान ध्येय होंगे; इसलिये उपासक का चित्त कामविजयी हो जायगा। भगवान पतंजलि कहते हैं- ‘वीतरागविषयं वा चित्तम्’ अर्थात विरक्त पुरुषों के विरक्त चित्त का चिन्तन करने वाला चित्त भी स्थिरता प्राप्त करता है। इसका क्या तात्पर्य है? यही कि विरक्त पुरुषों का ध्यान करने वाले पुरुषों का चित्त भी क्रमशः उनकी आकृति और भाव का आलम्बन करता हुआ विरक्त हो जाता है। इसी प्रकार भगवान की माया का वर्णन करने से उद्धार होना बतलाया गया है; जैसे-
इसका कारण यही है कि यहाँ माया का वर्णन स्वतन्त्र रूप से नहीं है, अपितु माया के नियन्तारूप से ईश्वर का ही वर्णन है। अतः मायाधीश भगवान का चिन्तन होते रहने से हम भी माया से मोहित न होंगे। इसी प्रकार यद्यपि काम-वर्णन से काम की वृद्धि ही हुआ करती है, तथापि यहाँ काम-वर्णन के व्याज से काम-विजयी भगवान का ही वर्णन होने के कारण कामविजयरूप फल ही प्राप्त होगा। किन्तु, इस लीला के श्रवण और कीर्तन के अधिकारी सभी लोग नहीं हो सकते। उनमें कुछ विलक्षणता होनी चाहिये। उनमें भी वर्णन करने वाला तो बहुत ही विलक्षण होना चाहिये; क्योंकि भगवान की जो दिव्यातिदिव्य लीलाएँ है उनके श्रवण-मनन से अधिकारियों पर प्रभाव पड़ता ही है। जिस प्रकार वीररस पूर्ण काव्य पढ़ने पर चित्त में वीरता का संचार होता है तथा करुणरस प्रधान ग्रन्थ का अनुशीलन करने पर चित्त करुणार्द्र हो जाता है, उसी प्रकार इस श्रृंगाररस प्रधान लीला के श्रवण या कीर्तन से चित्त में श्रृंगाररस का उद्रेक होना भी स्वाभाविक ही है। हम देखते हैं कि यह जानते हुए भी कि, भगवान श्रीराम साक्षात परब्रह्म परमात्मा हैं, उन पर किसी प्रकार की सम्पत्ति या विपत्ति का कोई अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ सकता। जिस समय उनके वन गमन आदि का वर्णन सुनते हैं तो हठात नेत्रों में जल आ ही जाता है। अतः भगवान की इस मधुरातिमधुर लीला के श्रवण-कीर्तन के मुख्य अधिकारी तो वे ही हैं जो संसार की समस्त वासनाओं को जीतकर मनोनिरोधपूर्वक परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार कर चुके हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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