भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
यह भी एक आदर्श है। जिस प्रकार साधकों के लिये चित्रलिखित स्त्री को भी न देखना आदर्श है, उसी प्रकार जो बहुत उच्चकोटि के सिद्ध महात्मा हैं, उनके लिये मानो यह चेतावनी है कि भाई, तुम अभिमान मत करना; जब तक तुम ऐसी परिस्थिति में भी अविचलित न रह सको तब तक अपने को सिद्ध मत मान बैठना। अहो! जिनके नखमणि की ज्योत्स्ना से भी अनन्तकोटि कन्दर्पों का दर्प दलित हो जाता था, उन परम सुन्दरी व्रजसुन्दरियों को भी जिन्होंने रमाया, उन श्रीहरि के दिव्यातिदिव्य योग का माहात्म्य कहाँ तक कहा जा सकता है? साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिये कि कामुकों के लिये तो नर-नारायण का आदर्श भी अनुपयुक्त है। उन्हें तो मर्यादा-पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के ही चरण चिह्नों का अनुसरण करना चाहिये। श्रीनर-नारायण का आदर्श साधकों के लिये है; उन्हें ऋषभदेवजी के आदर्श का अनुकरण नहीं करना चाहिये, क्योंकि सर्वकर्म संन्यास का अधिकार सबको नहीं है। उनका आचरण तो परमोत्कृष्ट तत्त्वज्ञों के लिये ही है। इसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के दिव्यातिदिव्य आचरणों का तो यदि कोई मन से भी अनुकरण करेगा तो पतित हो जायगा “नैतत्समाचरेज्जातु मनसापि ह्यनीश्चरः” क्योंकि वे तो निरतिशय ऐश्वर्यवान् साक्षात भगवान की ही अलौकिक लीलाएँ हैं। कोई भी जीव इस स्थिति पर नहीं पहुँच सकता। भला भगवान के सिवा ऐसा कौन है जिसने सम्पूर्ण जगत को मोहित करने वाले कामदेव का मान मर्दन किया हो। मदनमोहन तो एकमात्र भगवान श्रीकृष्ण ही हैं। करना तो दूर, हर किसी को तो इसे सुनना भी नहीं चाहिये, क्योंकि ‘छठी भावना रास की’, इसे सुनने-देखने का अधिकार तो देहाध्यास से ऊपर उठे बिना प्राप्त ही नहीं होता। भगवान ने जो कहा है कि-
उसका तात्पर्य यह नहीं कि श्रेष्ठ पुरुषों के सभी आचरणों का अनुकरण करना चाहिये; बल्कि जो अपनी योग्यता के अनुसार हो उसी का आचरण करना उचित है। भगवान शंकर हलाहल विष का पान कर गये थे, इसलिये क्या सभी को विष-पान करना चाहिये? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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