भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
वह हेयोपादेय से रहित है; पुण्य या अपुण्य विशेषण से युक्त होने पर ही वह हेयोपादेय होता है। जो आनन्द किसी उत्तम वस्तु को आलम्बन मानकर अभिव्यक्त होता है उसे प्रेम कहते हैं और जो बन्धनकारी निःकृष्ट पदार्थों के आलम्बन से होता है उसे काम या मोह कहा जाता है। भगवान विष्णु, शिव एवं गुरुदेव आदि उत्तम आलम्बन हैं। भगवान तो स्वयं ही रसस्वरूप हैं; उनमें तन्मय हुआ चित्त भी पूर्णतया रसमय हो जाता हे। श्रीमधुसूदन स्वामी कहते हैं-
प्रेमी के द्रुत चित्त पर अभिव्यक्त जो प्रेमास्पदावच्छिन्न चैतन्य है वही प्रेम कहलाता है। स्नेहादि एक अग्नि है। जिस प्रकार अग्नि का ताप पहुँचने पर जतु (लाक्षा) पिघल जाता है उसी प्रकार स्नेहादिरूप अग्नि से भी प्रेमी का अन्तःकरण द्रवीभूत हो जाता है। विष्णु आदि आलम्बन सात्त्विक हैं; इसलिये जिस समय तदवच्छिन्न चैतन्य की द्रुत चित्त पर अभिव्यक्ति होती है तब उसे ‘प्रेम’ कहा जाता है और जब नायिकावच्छिन्न चैतन्य की अभिव्यक्ति होती है तो उसे ‘काम’ कहते हैं। प्रेम सुख और पुण्य-स्वरूप है, तथा काम दुःख और अपुण्यस्वरूप है। इस प्रकार यदि मूल में देखें तो सत् का ही रूपान्तर सुख और पुण्य हैं तथा उसी का रूपान्तर दुःख और अपुण्य हैं एवं इन सब प्रकार के विशेषणों से शून्य जो सत् है वही परब्रह्म है। ठीक इसी प्रकार जो सर्वविशेषण शून्य रस है वह भी ब्रह्म ही है, वही साक्षान्मन्मथमन्मथ हैं और वही श्रीकृष्ण हैं। इसी से काम को वासुदेव का अंश कहा है- ‘कामस्तु वासुदेवांशः’। यह तो हुआ आध्यात्मिक विवेचन। आधिदैविक दृष्टि से देखें तो भी भगवान का रूपमाधुर्य ऐसा मोहक था कि जो काम संसार के प्रत्येक प्राणी को मोहित करने में समर्थ है, वही जिस समय अपने दल-बल सहित भगवान की परम सुन्दर दिव्य मंगलमयी मूर्ति के सामने आया तो उनका लावण्य देखकर मानों धूलि में मिल गया। इसी से उन्हें ‘साक्षान्मन्मथमन्मथः’ कहा गया है। वस्तुतः श्रीकृष्णचन्द्र के पादारविन्द की नखमणि-चन्द्रिका की एक रश्मि के माधुर्य का अनुभव करके कन्दर्प का दर्प प्रशान्त हो गया और उसे ऐसी दृढ़ भावना हुई कि मैं लक्षों जन्म कठिन तपस्या करके श्रीव्रजांगनाओं के सन्निधान में काम का क्या प्रभाव रह सकता था? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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