भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
सर्वकर्म-संन्यासी तत्त्वज्ञ महानुभावों की भी दो प्रकार की चर्चा देखने में आती है। उनमें अधिकांश तो ऐसे हैं जो कामिनी-कांचनादि भोग्य पदार्थों का स्वरूप से त्याग कर देते हैं और सर्वदा अलक्षित गति से एकान्त सेवन किया करते हैं, उनमें साधकों के आदर्श तो बदरिकाश्रम निवासी भगवान नर-नारायण हैं और सिद्धों के भगवान ऋषभदेव। वे लोग स्वप्न में भी स्त्री आदि भोग्य विषयों का संग नहीं करते। उनका नियम होता है कि- “संग न कुर्यात् प्रमदासु जातु योगस्य पारं परमारुरुक्षुः।” किन्तु कोई-कोई महानुभाव ऐसी विलक्षण धारणा वाले होते हैं कि अनेकविध भोग्य सामग्रियों के सान्निध्य में रहकर भी वे उनसे अक्षुण्ण रहते हैं। ऐसे सिद्धकोटि के महानुभावों के लिये ही भगवान श्रीकृष्ण की लीलाएँ हैं। किन्तु वे लीलाएँ अनुकरणीय नहीं हैं, उनके द्वारा तो इस कोटि के महापुरुषों की उच्चतम स्थिति का केवल दिग्दर्शन मात्र होता है। यद्यपि साधकों के लिये स्त्रियों का चिन्तनमात्र भी महान अनर्थ का हेतु होता है, तथापि भगवान ने तो कामजय के लिये ही यह अद्भुत लीला की थी। टीकाकार श्री श्रीधरस्वामी लिखते हैं- “ब्रह्मादिजयसंरूढदर्पकन्दर्पदर्पहा। अर्थात ब्रह्मादि लोकपालों को जीत लेने के कारण जो अत्यन्त अभिमानी हो गया था उस कामदेव के दर्प को दलित करने वाले गोपियों के रासमण्डल के भूषणस्वरूप श्रीलक्ष्मीपति की जय हो। वस्तुतः रासक्रीड़ा में प्रवृत्त होकर भगवान ने मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया, बल्कि उन्होंने तत्त्वज्ञों की निष्टा की दृढ़ता ही प्रदर्शित की है। अहो! जो साक्षात श्रृंगाररस की अभिवृद्धि करने वाले हैं उन अनेकविध दिव्य हाव-भाव कटाक्षों का सम्प्रयोग होने पर भी उनका चित्त तनिक भी विचलित नहीं हुआ। भगवान की इस स्थिति का श्रीशुकदेव जी ने भिन्न-भिन्न शब्दों में कई जगह वर्णन किया है, जैस- ‘साक्षान्मन्मथमन्मथः’, आत्मन्यवरुद्धसौरतः ‘आत्मारामोऽप्यरीरमत्’ इत्यादि। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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