भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इस प्रकार यद्यपि इस मर्यादातिक्रमण में भी मर्यादा की रक्षा ही है तथापि भगवान तो समस्त विरुद्ध धर्मो के आश्रय हैं। इसलिये वे एक काल में भी दोनों प्रकार के कार्य कर सकते हैं। जिस प्रकार सर्वाधिष्ठान होने के कारण आत्मा एक ही समय में एक (अपवाद) दृष्टि से अकर्ता-अभोक्ता है किन्तु दूसरी (अध्यारोप) दृष्टि से सवंकर्ता और सर्वभोक्ता भी है उसी प्रकार भगवान में एक ही साथ दो विरुद्ध धर्म रहा करते हैं। निर्व्यापार रहते हुए व्यापार करना और व्यापार करते हुए भी निर्व्यापार रहना-ये यद्यपि परस्पर-विरुद्ध धर्म हैं तथापि तत्त्वज्ञ महापुरुषों की तो यही दृष्टि है-
यहाँ ‘पश्येत्’-देखे यह भी क्रिया ही है। ध्यानयोगी जो सम्पूर्ण इन्द्रियों की गति को रोककर निश्चल भाव से अपने निर्विशेष स्वरूप का साक्षात्कार करता है वह भी तो एक प्रकार की क्रिया ही है। जो भगवान अपने भावुक भक्तों के लिये रसस्वरूप हैं, जिनका ‘रसो वै सः रसँ ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति’ इस श्रुति द्वारा प्रतिपादन किया गया है, वे ही अज्ञानियों के लिये भय के स्थान हैं, ‘तत्त्वेव भयं विदुषोऽमन्वानस्य’ जो आत्मज्ञों के लिये परम सन्निकृष्ट हैं, वे ही अज्ञों के लिये दूर से भी दूर हैं। अतः भगवान में तो स्वभाव से ही सम्पूर्ण विरुद्ध धर्म रहते हैं इसलिये यदि एक काल में ही वे विरुद्ध प्रकार के आचरण करें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यही नहीं, जिस प्रकार भगवान के अवतार मर्यादापालन के लिये अपेक्षित होते हैं, उसी प्रकार कर्म-संन्यास के लिये भी उनकी अपेक्षा हुआ करती है। भगवान राम का अवतार मर्यादापालन के लिये था और ऋषभदेव जी का सर्वकर्म-संन्यास के लिये। यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि एक ही भगवान ने दो प्रकार की चेष्टाएँ क्यों की? इस विषय में यही कथन है कि वे भिन्न-भिन्न चेष्टाएँ भिन्न-भिन्न अधिकारियों के लिये थीं। जो मर्यादापालन का अधिकारी है उसके आदर्श श्रीरामचन्द्र हैं और जो सर्वकर्म-संन्यास के अधिकारी हैं उसके पथ-प्रदर्शक भगवान ऋषभदेव हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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