भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
बात क्या है? भगवान गोपांगनाओं के आत्मा हैं; आत्मा का व्यवधान भला कैसे सह्य हो? द्वारका में जो भगवान पट्टमहिषी थीं उनके विषय में कहा जाता है कि जिस समय भगवान दीर्घकालीन प्रवास के पश्चात हस्तिनापुर से आये उस समय उन्हें देखकर वे तुरन्त आसन और शय्या से उठीं। किस लिये? देशकृत व्यवधान को दूर करने के लिये। किन्तु उस समय उन्हें यह विचार हुआ कि हम तो अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय इन पाँच कंचुकों को पहिनकर अपने प्रेमास्पद से मिल रही हैं। अतः हमारा यह सम्मिलन समुचित आनन्दवर्द्धक नहीं हो सकता। इसलिये वे उन सब कंचुकों को उतारकर सच्चिदानन्द रूप से भगवान को मिलीं। यहाँ गोपांगनाएँ और भगवान दोनों ही सच्चिदानन्द-स्वरूप थे। अतः उनकी लीला प्राकृत है ही नहीं। इसलिये इसमें मर्यादातिलंघन का प्रश्न ही नहीं हो सकता। यह तो वह स्थिति है जिसकी प्राप्ति के लिये सारी मर्यादाओं का पालन किया जाता है। अतः जिस समय भगवान का प्रादुर्भाव हुआ उस समय उन्होंने यही विचार किया कि पहले अवतार के प्रधान प्रयोजन की ही पूर्ति करनी चाहिये। इसी से पहले उन्होंने अमर्यादित दिव्य लीलाएँ कीं और पीछे मर्यादित लोक-संग्रहमयी। लोक में भी यह प्रायः देखा जाता है कि उपनयन-संस्कार से पूर्व उच्छृंखल प्रवृत्ति रहती है और उसके पीछे मर्यादानुसार आचरण किया जाता है। यही बात भगवान के विषय में भी देखी जाती है। इस प्रकार प्रधान प्रयोजन की पूर्ति के लिये स्वीकार की हुई भगवान की उच्छृंखलता में भी एक प्रकार की सुशृंखलता ही है। इस मर्यादातिलंघन में भी एक प्रकार का मर्यादापालन ही है। वेद जो कहता है कि 'जायमानो वै ब्रह्मणः त्रिभिर्ऋणैर्ऋणवान् जायते'- उत्पन्न होते ही ब्राह्मण तीन ऋणों से ऋणवान् हो जाता है- सो इन तीनों ऋणों में स्वाध्याय द्वारा ऋषिऋण की निवृत्ति होती है, प्रजोत्पादन से पितृऋण का अपाकरण होता है और यज्ञ-यागादि से देवऋण का शोधन होता है। यहाँ यदि ‘जायमान’ शब्द का अर्थ ‘जन्म लेते ही’ किया जाय तो बालक प्रत्यवायी सिद्ध होगा, क्योंकि उपनयन होने से पूर्व वह इनमें से न तो कोई क्रिया करने में समर्थ ही है और न इनका अधिकारी ही। इसलिये इसका अर्थ ‘गृहस्थः सम्पद्यमानः’-गृहस्थावस्था को प्राप्त होने पर ऐसा करना चाहिये। अत: भगवान ने संस्कारादि से पहले अमलात्मा परमहंसों के प्रेम-रसाभिवर्धन के लिये उच्छृंखल लीलाओं का ही प्रदर्शन किया तथा संस्कारादि के पश्चात मर्यादित लीलाओं का प्रदर्शन किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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