भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
देवताओं के प्रति स्वाभाविक प्रेम नहीं होता, क्योंकि वे अदृष्ट होते हैं। इसीलिये उनमें प्रेम करने के लिये शास्त्र को विधान करना पड़ा है। गुरुदृष्ट हैं, इसलिये देवताओं की अपेक्षा उनके प्रति अनुराग होना अधिक सुगम है। परन्तु उनमें आत्मीयता का अभाव है, इसी से स्वारसिक प्रेम उनमें भी नहीं होता। इसी प्रकार पिता, माता और पत्नी में उत्तरोत्तर आत्मीयता की अधिकता होने के कारण प्रेम की भी अधिकता होती है; तथापि स्वारसिकी प्रीति उनके प्रति भी नहीं होती इसी से उनके प्रति प्रेम करने के लिये भी विधि है। यहाँ तक कि विधि नियन्त्रित सर्वापेक्षया अधिक कामुक की कामिनी-विषयिणी प्रीति भी श्रृंखलाशून्य परकीया कामिनी में होने वाली प्रीति से न्यून ही है। यह बात प्रायः देखी जाती है कि जहाँ-जहाँ विधि है वहाँ-वहाँ स्वारसिकी प्रीति की न्यूनता होती है। इस दृष्टि से, यदि भगवान की प्रवृत्ति वैदिक अथवा स्मार्त्त श्रृंखलाओं से नियन्त्रित हो तो वह स्वारसिकी प्रीति को बढ़ाने वाली नहीं होगी और ऐसा न होने पर उनके अवतार का मुख्य प्रयोजन ही सिद्ध न हो सकेगा। यह ठीक है कि वे मर्यादापालन करते हुए आरुरुक्षुओं को तो मार्ग प्रदर्शन कर देंगे, परन्तु अमलात्मा परमहंसों को अपने निरपेक्ष अनन्य प्रेम का पथ न दिखला सकेंगे। व्यवहार में देखा जाता है कि कितने ही स्थलों में चांचल्य ही रस की अभिव्यक्ति करने वाला है। जैसे बालक की तो चंचलता ही माता-पिता की प्रसन्नता को बढ़ाने वाला है। जैसे बालक की तो चंचलता ही माता-पिता की प्रसन्नता को बढ़ाने वाली है। यदि वह समाहित मुनियों के समान शान्तभाव से बैठा रहे तो यह माता-पिता के मोद में बाधक ही होगा। अतः जो रसज्ञ हैं उनसे यह बात छिपी नहीं है कि बहुत स्थानों में तो अचांचल्य रस का विघातक ही है। इसलिये यदि भगवान की चेष्टाएँ वैदिक-स्मार्त्त्त श्रृंखलाओं से बँधी हुई होंगी तो वे अमलात्मा परमहंसों का परप्रेम से छादन कर सकेंगी। उन महात्माओं को मर्यादा-पालन का आदर्श अपेक्षित ही नहीं है क्योंकि ऐसा तो वे पहले ही कर चुके होते हैं। उन्हें तो भगवान में विशुद्ध प्रेम की अपेक्षित है। किन्तु जहाँ भगवान अपने ऐश्वर्ययोग से सम्पन्न होंगे वहाँ उसका आविर्भाव होना प्रायः असम्भव है। जिस प्रकार शिशु का अद्भुत चांचल्य माता-पिता के हृदय को आकर्षित कर लेता है, प्रियतमा के मर्यादातीत रसमय हाव-भाव-कटाक्षादि प्रियतम का मोद बढ़ाते हैं, उसी प्रकार यदि भगवान परमदिव्य मंगलमय विग्रह धारण कर रसमयी उच्छृंखल चेष्टाएँ करें तो उन्हीं से उनके प्रति उनकी स्वारसिकी प्रीति होनी सम्भव है। इस दृष्टि से विचार करें तो यही निश्चय होता है कि भगवान का शास्त्रातिलंघन दूषण नहीं प्रत्युत भूषण है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज