भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
यद्यपि वेदान्तियों ने आत्मदर्शन में विधि नहीं मानी, क्योंकि विधि पुरुषाधीन क्रिया में ही हुआ करती है, जिसके कि करने-न-करने में पुरुष की स्वतन्त्रता होती है, जिस प्रकार अमुक पुरुष घोड़े पर चढ़कर जाता है, पैदल जाता है अथवा नहीं जाता। किन्तु वस्तु या प्रमाणाधीन ज्ञान में विधि नहीं हुआ करती, क्योंकि वह तो विधि की अपेक्षा न रखकर केवल प्रमाण के अधीन है। यदि प्रमाण को अपने प्रमेय के प्रकाशन में किसी विधि की अपेक्षा मानी जाय तो विधि को भी अपने अर्थ का बोध कराने के लिये दूसरी विधि की आवश्यकता होगी। अतः आत्मदर्शन तो प्रमाण से ही होता है, उसके लिये विधि की आवश्यकता नहीं है। तथापि तत्त्वदर्शन के लिये प्रमाण के व्यापार की अपेक्षा तो है ही और वह प्रमाण-व्यापार पुरुषाधीन है; इसीलिये केवल उसीकी विधि मानी गयी है। अत: भगवान भाष्यकार ने बहिर्मुखतादि का व्यावर्तन करने वाले द्रष्टव्य आदि वचनों को ‘विधिच्छाय’ (विधि की छायामात्र) कहा है। वास्तव में यही कारण है कि प्राणियों की मनोवृत्ति शब्द-स्पर्शादि में समासक्त है; वह शुद्ध परब्रह्म की ओर जाती ही नहीं। अतः भगवान उनकी स्वारसिकी प्रवृत्ति सम्पादन के लिये ही, शब्द स्पर्शरूप रसादिविरहित होने पर भी उनके मन और इन्द्रियों को आकर्षण करने के लिये दिव्य रूप, दिव्य गन्ध और दिव्य स्पर्शवान होकर अभिव्यक्त होते हैं, क्योंकि परमपुरुषार्थ तो यही है। जब तक भगवान के प्रति जीव की स्वारसिकी प्रवृत्ति नहीं होती तब तक तो वह अकृतार्थ ही है। जिस प्रकार रसना के पित्तादि दोष से दूषित हो जाने पर जब किसी बालक को मधुरातिमधुर पदार्थ भी, जो उसकी रोग-निवृत्ति के भी हेतु होते हैं, अरुचिकर प्रतीत होने लगते हैं तो उसकी माता उन्हें उसी वस्तु में मिलाकर देती है, जो कि उसे रुचिकर होती है उसी प्रकार जो परब्रह्मा परमात्मा मधुरातिमधुर है, जिससे बढ़कर और कोई मधुर नहीं है, उसमें जीवों को मोहवश प्रेम नहीं होता; बल्कि विष के समान कटु विषयों में आसक्ति हो जाती है। अतः अपने तत्त्वज्ञ भक्तों को प्रेमानन्द प्रदान करने के लिये ही वे अशब्द एवं रूपरसादिविरहित होने पर भी महामनोहर दिव्यमंगलमयी मूर्ति धारण कर अवतीर्ण होते हैं। हाँ, इतना अन्तर अवश्य रहता है कि प्राकृत रूपरसादि वस्तुतः विषरूप ही हैं; किन्तु भगवदीय रूपादि स्वरूप में भी निरतिशय माधुर्यसम्पन्न परमानन्द ही हैं। अतः उनके प्रति अमलात्मा मुनिजन एवं अन्य साधारण प्राणियों की भी समान रूप से स्वारसिकी प्रीति हो जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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