भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
“नारो जीवसमूहस्तस्य अयनं प्रवत्तिर्यस्मात स नारायणः।” नार जीवसमूह को कहते हैं उसकी जिससे प्रवृत्ति होती है वह नारायण है; अथवा- “नारो जीवसमूहः अयनं असौ नारायणः।” नार यानी जीवसमूह है आश्रय स्थान जिसका अर्थात जो अन्तर्यामीरूप से समस्त जीवों में बसा हुआ है वह नारायण है। “नारं जीवसमूहमयते साक्षित्वेन विजानातीति नारायणः।” अर्थात प्रमात्रादि समस्त प्रपंच के साक्षी को नारायण कहते हैं। इस प्रकार शुद्ध परमात्मा ही नारायण है। वही जिसका परायण-आश्रय है अर्थात जिसका एकमात्र ध्यये श्रीनारायण ही हैं वह नारायण-परायण कहलाता है। उसे विषय अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सकते, क्योंकि उसकी तो एकमात्र श्रीनारायण में ही स्वारसिकी प्रीति होती है। अतः भगवान के अवतार का मुख्य प्रयोजन यही है कि जो अमलात्मा मुनि हैं उनकी श्रीनारायण में स्वारसिकी प्रीति हो। वस्तुतः ब्रह्मतत्त्व के चिन्तन में तत्त्वज्ञों की भी ऐसी स्वारसिकी प्रवृत्ति नहीं होती जैसी विषयी पुरुषों में होती है। इस स्वारसिकी प्रवृत्ति के तारमत्य से ही तत्त्वज्ञों की भूमिका का तारतम्य होता है। चतुर्थ, पंचम, षष्ठ और सप्तम भूमिका वाले तत्त्वज्ञों में केवल बाह्य विषयों से उपरत रहते हुए तत्त्वोन्मुख रहने में ही तारतम्य है। ज्ञान तो सबमे समान ही है। जितनी ही प्रयत्नशून्य स्वारसिकी भगवदुन्मुखता है उतनी ही उत्कृष्ट भूमिका होती है। जिनकी मनोवृत्ति, कामुक की कामिनी-विषयक लालसा के समान, ब्रह्म के प्रति अत्यन्त स्वारसिकी होती है, वे ही नारायण-परायण हैं। वे उसकी अपेक्षा भिन्न भूमिका वाले जीवन्मुक्तों से उत्कृष्टतम हैं। निर्विशेष परब्रह्म में हमारी जो प्रवृत्ति होती है वह तो शास्त्र विधि के कारण है, किन्तु मनोरमा नारी में चित्त स्वयं ही आकर्षित हो जाता है। हमें शास्त्र विधि के कारण परब्रह्म में तो बलपूर्वक चित्त को लगाना पड़ता है और निषेध के भय से परस्त्री की ओर से उसे बलात्कार हटाना पड़ता है। विधि कहाँ होती है? विधिरत्यन्तमप्राप्तौ’-जो वस्तु स्वतः सर्वथा प्राप्त न हो उसके लिये विधि होती है। अग्निहोत्र स्वतः प्राप्त नहीं है; इसी से वेद भगवान ‘अग्निहोत्रं जुहुयात्’ ऐसा विधान करते हैं। इसी प्रकार आत्मदर्शन के लिये भी विधि की गयी है- ‘आत्मा वा रे द्रष्टव्यः’। अतः आत्मदर्शन में स्वासिकी प्रीति नहीं है और जहाँ स्वारसिकी प्रीति नहीं होती वहाँ निरतिशय प्रेम भी नहीं हुआ करता।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यहाँ यह शंका हो सकती है कि आत्मा तो परप्रेम का ही आस्पद बतलाया गया है और इस कथन से वह ऐसा सिद्ध नहीं होता परन्तु बात ऐसी नहीं है। यहाँ केवल आत्मदर्शन में ही स्वारसिकी प्रीति का अभाव बतलाया गया है, आत्मा में नहीं। वस्तुतः अज्ञानी पुरुषों की भी जो शब्दादि विषयों में स्वारसिकी प्रवृत्ति होती है वह अज्ञानवश आत्मारूप से माने हुए देहेन्द्रियादि की तुष्टि के ही लिये होती है। वे अपने परमार्थ स्वरूप से अनभिज्ञ होते हैं इसलिये देहेन्दियादि मिथ्यात्मा के ही परितोष का प्रयत्न करते हैं; परन्तु वस्तुतः उस समय वैसा करके भी वे अपने सत्यात्मा की ही प्रीति का सम्पादन करते हैं, क्योंकि देहेन्द्रियादि मिथ्यात्मा की प्रसन्नता का साक्षी तो शुद्ध चेतन ही है। शास्त्र तो केवल इतना ही करता है कि उन्हें सत्यात्मा का ज्ञान करा देता है; इसी से फिर वे मिथ्यात्मा की प्रसन्नता के लिये उद्विग्न नहीं होते।
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