भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इसका तात्पर्य यही है कि जो लोग आरुरुक्षु हैं, जो संसार सागर से पार नहीं हुए हैं उनके उपदेशार्थ तो भगवान लौकिक-वैदिक मर्यादाओं का पालन करते हैं। इसलिये जिन्हें संसाररूप स्वाभाविक मृत्यु को पार करना है उन्हें तो मर्यादापालनरूप महौषध का सेवन करना चाहिये। उनके लिये तो भगवान भी मर्यादापालन करते हैं; किन्तु जो योगारूढ़ हैं उनके लिये ऐसी कोई विधि नहीं है; उन्हें एकमात्र भगवन्निष्ठा में ही स्थिर करने के लिये भगवान मर्यादा का उल्लंघन कर देते हैं, क्योंकि वे स्वयं तो समस्त विरुद्ध धर्मों के आश्रय ही हैं। उनके लिये मर्यादापालन और मर्यादातिलंघन दोनों ही समान हैं। जो अमलात्मा परमहंस योगारूढ़ हैं उनके लिये तो मर्यादापालन की अपेक्षा भगवान का मर्यादातिलंघन ही अधिक श्रेयस्कर है, क्योंकि उन्हें तो भगवत्तत्त्व में स्वारसिकी प्रीति ही अभिलषित है और वह तभी हो सकती है जब किसी प्रकार की श्रृंखला न रहे। जहाँ कोई श्रृंखला होती है अर्थात जहाँ विधि का बन्धन होता है वहाँ स्वारसिक प्रेम नहीं होता। लोक में यह देखा जाता है कि वैषियक सुख के अभिव्यंजक स्त्री-पुत्रादि में मनुष्यों का जैसा स्वाभाविक राग होता है वैसा श्रौतस्मार्त्तादि कर्मों में नहीं होता। यही नहीं जिन्होंने मनोनिरोधपूर्वक अपनी बुद्धि को परब्रह्म में स्थापित कर दिया है, देखा जाता है कि विषय उन्हें भी आकर्षित कर लेते हैं। दृष्ट दुःख उन्हें भी बना ही रहता है। वस्तुतः सुखी तो वे ही हैं जो नारायण-परायण हैं। ऐसे नारायण-परायण महानुभाव विरले ही होते हैं। करोड़ों में कोई एक आध ही भाग्यशाली होता है।
तथापि सुखी वे ही हैं जो नारायण-परायण हैं। वे नारायण कौन हैं? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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