भक्ति सुधा -करपात्री महाराज पृ. 878

भक्ति सुधा -करपात्री महाराज

श्रीरासलीलारहस्य

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यद्यपि यह नहीं कहा जा सकता कि भगवान के निर्गुण निर्विशेष स्वरूप में वह परमानन्द है ही नहीं जो कि उनकी सगुण मूर्ति में है। कारण, द्दक्षुदण्ड की मधुरिमा, पाषाणादि का मूल्य और चन्दनादि की सुगन्धि- ये बस सातिशय हैं। इनमें न्यूनाधिकता हो सकती है। परन्तु भगवान में जो सौन्दर्य, माधुर्य एवं आनन्दादि हैं वे निरतिशय हैं। इसलिये चाहे भगवान की सगुण मूर्ति हो चाहे निर्गुण, इनमें कोई तारतम्य नहीं हो सकता; क्योंकि जो तत्त्व निरतिशय बृहत्‌ और निरतिशय आनन्दमय है उसी को तो निर्गुण ब्रह्म कहते हैं। जहाँ बृहत्ता अथवा आनन्द का तारतम्य है वह तो ब्रह्म ही नहीं हो सकता। जहाँ यह तारतम्य समाप्त हो जाता है उस अपार संवित्सुखसार ही को तो परब्रह्म कहते हैं। जो तत्त्व देशकाल वस्तुकृत परिच्छेद से रहित है वही अनन्त ब्रह्म है; ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म।’ तथापि यहाँ जो विलक्षणता बतलायी गयी है वह भगवदभिव्यक्ति के तारतम्य को लेकर भावुक भक्तों के हृदय की भावना हो सकती है। तात्पर्य यह है कि तत्त्वज्ञ के अन्तःकरण पर अभिव्यक्त परब्रह्म के माधुर्यादि की अपेक्षा स्वयं उन्हीं की परमाह्लादिनी लीलाशक्ति पर अभिव्यक्त भगवत्स्वरूप के सौन्दर्य-माधुर्यादि अत्यन्त विलक्षण हो सकते हैं। किन्तु वास्तव में तो सगुणोपासक के लिये जैसा सगुण स्वरूप परमानन्दमय है वैसा ही निर्गुणोपासक के लिये भगवान का निर्गुण-निर्विशेष स्वरूप भी है।

जो लोग निर्विशेष परब्रह्म का अपरोक्ष साक्षात्कार कर चुके हैं उन्हें कैवल्य तो ज्ञान से ही प्राप्त होता है; किन्तु वे जीवन्मुक्तिकाल में भी भगवान की अचिन्त्य लीलामयी शक्ति के योग से दिव्य मंगलमय विग्रह में आविर्भूत हुए परमात्मा श्रीकृष्णचन्द्र की सौन्दर्य-माधुर्य सुधा का समास्वादन किया करते हैं। अचिन्त्यानन्द सुधासिन्धु श्रीभगवान के जिस माधुर्य का समास्वादन केवल वृत्तिशून्य अन्तःकरण से नहीं किया जा सकता उसे भी तत्त्वज्ञ भावुकगण भगवान की दिव्य लीलाशक्ति की सहायता से अनुभव कर लेते हैं। ऊपर यह कहा जा चुका है कि केवल नेत्रों से सूर्य की वैसी दीप्तिमत्ता अनुभव नहीं होती जैसी कि स्वच्छ काँच आदि की सहायता से होती है। उपाधि-विशुद्धि के तारतम्य से माधुर्य-विशेष के प्राकट्य का भी तारतम्य रहता है।

यद्यपि प्राण और इन्द्रियादि की अपेक्षा तो शुद्ध निर्वृत्तिक अन्तःकरण की स्वच्छता विशेष है, तथापि भगवान की जो लीलाशक्ति उनके अशेष विशेषातीत परमानन्दात्मक शुद्ध स्वरूप को ही अचिन्त्य एवं अनन्त आनन्दमय सौन्दर्य-सुधानिधि, परम दिव्य श्रीकृष्णविग्रह में अभिव्यक्त कर देती है वह उस निर्वृत्तिक अन्तःकरण की अपेक्षा भी अनन्तगुण स्वच्छ है; क्योंकि उसमें रजोगुण या तमोगुण का थोड़ा-सा भी संस्पर्श नहीं है। अन्तःकरण चाहे कितना भी स्वच्छ हो परन्तु वह रजोगुण-तमोगुण से सर्वथा शून्य नहीं हो सकता, क्योंकि वह तमःप्रधाना प्रकृति के परिणामभूत पंचभूतों का ही कार्य है और कार्य में कारणांश की अनुवृत्ति अनिवार्य है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भगवत्प्राप्ति 1
2. नामरूप की उपयोगिता 3
3. इष्टदेव की उपासना 8
4. मानसी-आराधना 20
5. सगुणोपासना में सरलता 24
6. संकल्पबल 28
7. श्री शिवतत्व 48
8. शिव से शिक्षा 60
9. शिवलिंगोपासना-रहस्य 63
10. श्री विष्णु-तत्त्व 88
11. गायत्री-तत्त्व 97
12. श्री भगवती-तत्त्व 102
13. बुद्धावतार का प्रयोजन 178
14. गजेन्द्र-मुक्ति 182
15. शक्ति का स्वरूप 188
16. माँ के चरणों में 194
17. पीठ रहस्य 226
18. गणपति तत्त्व 235
19. अवतारमीमांसा 247
20. निराकार से साकार 255
21. भगवदवतार का प्रयोजन 275
22. भारत ही में अवतार क्यों? 281
23. ज्ञान और भक्ति 287
24. भक्तिरसामृतास्वादन 327
25. अव्यभिचार भक्तियोग 352
26. सबसे सगे भगवान 360
27. चतुर्विधा भजन्ते 363
28. भगवच्छरणागति से ही गति 367
29. भगवान का अवलम्बन अनिवार्य 372
30. प्रेमतत्त्व 375
31. भगवान और प्रेम 384
32. भगवत्कथामृत 390
33. प्रभुकृपा 396
34. निर्बल का बल 401
35. करुणालहरी 408
36. श्रीरामजन्म-रहस्य 411
37. श्री रामभद्र का ध्यान 415
38. श्रीकृष्ण-जन्म 422
39. भगवान का मंगलमय स्वरूप 428
40. विभीषण-शरणागति 450
41. श्रीकृष्ण बालक्रीड़ा 469
42. साक्षान्मन्मथमन्मथः 486
43. श्रीवृन्दावन में वर्षा और शरत 507
44. वेणुरव 512
45. किरातिनियों का स्मररोग 517
46. वेणुगीत 525
47. चीरहरण 691
48. वेदान्त-रससार 730
49. निर्गुण या सगुण? 781
50. व्रज-भूमि 797
51. सर्वसिद्धान्त-समन्वय 808
52. क्या ईश्वर और धर्म बिना काम चलेगा? 839
53. श्रीरासलीलारहस्य 854
54. श्री रासपञ्चाध्यायी 1142

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