भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इसी से श्रीरामचन्द्र का दर्शन होने पर तत्त्वज्ञशिरोमणि महाराज जनक ने कहा था-
महाराज जनक के इस बरबस ब्रह्मसुख त्याग और रामदर्शनानुराग में क्या कारण था? केवल यही कि अब तक वे शुद्ध परब्रह्म रूप सूर्य को अपने नेत्रों से ही देखते थे, किन्तु इस समय वे उसके लीलाशक्तिरूप दूरवीक्षणोपहित स्वरूप का दर्शन कर रहे थे। केवल नेत्र से दीखने वाले आदित्य की अपेक्षा दूरवीक्षणोपहित आदित्य दर्शन में विशेषता है ही। यहाँ एक बात और स्मरण रखनी चाहिये। आदित्य का वास्तविक स्वरूप कितना वैचित्र्यमय है- यह बात हमारे अनुमान में भी नहीं आ सकती। इसका अनुभव तो आदित्य की पूर्ण सन्निधि प्राप्त होने पर ही हो सकता है। इस समय हमें उसका जो कुछ रूप दिखाई देता है वह किसी-न-किसी उपाधि से संश्लिष्ट ही होता है। जिस प्रकार दूरवीक्षण यन्त्र उसका उपाधि है उसी प्रकार मेघ भी है। किन्तु मेघ उसके स्वरूप का आवरक है, जिसके कारण हमें सूर्य की स्फुट प्रतीति नहीं हो सकती। इसी प्रकार इधर ब्रह्मदर्शन में भी जहाँ भगवान की लीलाशक्ति भगवद्दर्शन में पटुता प्रदान करने वाली है, वहाँ मल, विक्षेप और आवरण उसके प्रतिबन्धक हैं। इसीलिये अज्ञजन वस्तुतः ब्रह्मदर्शन करते हुए भी उसे अदृष्ट ही समझते हैं। किन्तु भगवान के स्वरूप की स्फुट और यथावत अनुभूति तो सम्पूर्ण उपाधियों से मुक्त होकर उनके साथ तादात्म्य होने पर ही होगी। उपर्युक्त कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि ब्रह्मदर्शी तत्त्वज्ञगण जिस निर्विशेष शुद्ध ब्रह्म का साक्षात्कार करते हैं उसकी अपेक्षा भगवान का सगुण दिव्य-मंगलविग्रह अधिक आकर्षक क्यों है। इस विषय में भावुकों का ऐसा कथन है कि जिस प्रकार पार्थिवत्व में समानता होने पर भी पाषाणादि की अपेक्षा हीरा अधिक मूल्यवान होता है तथा कपास की अपेक्षा उससे बना हुआ वस्त्र बहुमूल्य होता है, उसी प्रकार शुद्ध परब्रह्म की अपेक्षा उसी से विकसित भगवान की दिव्य-मंगलमयी मूर्ति कहीं अधिक माधुर्य-सम्पन्न होती है। इक्षुदण्ड स्वभाव से ही मधुर है किन्तु यदि उसमें कोई फल लग जाय तो उसकी मधुरिमा का क्या कहना है? मलयाचलोत्पन्न चन्दन के वृक्ष में यदि कोई पुष्प आ जाय तो वह कैसा सौरभ सम्पन्न होगा? इसी प्रकार भगवान की सगुण मूर्ति के सम्बन्ध में समझना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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