भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
यदि ऐसी बात हो तब तो भगवान की इस लोकोत्तर लीला के विषय में कोई आपत्ति हो ही नहीं सकती, क्योंकि इस लोक में न होने के कारण इसमें इस लोक के नियमों की रक्षा करना आरवश्यक नहीं हो सकता। किन्तु यदि भगवान ने इस लोक में ही यह लीला की हो तब भी उनके-
इस कथन से जो विरोध प्रतीत होता है वह ठीक नहीं, क्योंकि भगवान के विषय में ऐसा नियम नहीं है कि वे लोकमर्यादा का अतिक्रमण करते ही न हों। जब उनके अनन्य भक्त और तत्त्वनिष्ठ मुनिजन भी मर्यादातिलंघन करते देखे गये हैं तो साक्षात भगवान के विषय में तो कहना ही क्या है। उनके पादपद्ममकरन्द का सेवन करने वाले मुनिजनों की गतिविधि भी सर्वसाधारण के लिये सुबोध नहीं हुआ करती। “यत्पादपद्ममकरन्दजुषां मुनीनां वर्त्मास्फुटं नृपशुभिर्ननु दुर्विभाव्यम्।” वस्तु स्थिति तो ऐसी है कि आत्मतत्त्व सभी प्रकार के शुभाशुभ कर्मों से शून्य है। जबकि उस आत्मतत्त्व को जानने वाले महापुरुषों की अविलुप्त महिमा भी कर्मों से न्यूनाधिक नहीं होती तो श्रीकृष्णरूप में अवतीर्ण साक्षात परमात्मतत्त्व का किसी भी शुभाशुभ कर्म से किस प्रकार संश्लेष हो सकता है? कूटस्थ स्वयं प्रकाश परब्रह्म में अध्यस्त देह, इन्द्रिय, मन और बुद्धि आदि उपाधियों के व्यापार युक्त होने से ही उस निर्व्यापार आत्मतत्त्व में व्यापारवत्ता की कल्पना होती है। इस प्रकार के कल्पित गुणों या दोषों से अधिष्ठान में कोई गुण या दोष नहीं हो सकता। ‘न कर्मणा वर्धते नो कनीयान्’, घनैरुपेतैर्विगतै रवेः किम्’ इत्यादि श्रुति-स्मृति भी परमात्मा को सब प्रकार के कर्मों से असंस्पृष्ट बतलाती हैं। अतः प्रकृति और प्राकृत सब प्रकार के प्रपंच से अतीत परमात्मा सब प्रकार की श्रृंखलाओं से शून्य है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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