भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
यद्यपि यह दशम स्कन्ध समग्र ही आश्रयरूप है, तथापि लीला विशेष के लिये इसमें भी अन्तरंग-बहिरंग की कल्पना की गयी है। जिनका भगवान से जितना ही अधिक संसर्ग है वे उतने ही अधिक अन्तरंग हैं। इसका वर्णन ‘उज्ज्वल-नीलमणि’ नामक ग्रन्थ में बहुत स्पष्टतया किया गया है। मथुरावासियों की अपेक्षा गोकुल-निवासी अधिक अन्तरंग हैं, उनसे भी श्रीदामादि नित्यसखा अन्तरंग हैं, उनकी अपेक्षा गोपांगनाएँ अन्तरंग हैं और उन सभी की अपेक्षा श्रीवृषभानुनन्दिनी अन्तरतम हैं। क्योंकि इस क्रम से, रासलीला में सर्वान्तरतम व्रजांगनाओं का ही प्रसंग है, यह सर्वान्तरतम लीला है। इससे पूर्व भगवान ने गोपों को अपना स्वरूप-साक्षात्कार कराया था। यद्यपि कालियमदन, गोवर्धनधारण, अघासुरादि के वध तथा अन्य अनेकों अतिमानुष-लीलाओं के कारण गोपगण यह समझ चुके थे कि कृष्ण कोई साधारण पुरुष नहीं हैं। फिर वरुणलोक में उनका ऐश्वर्य देखकर तो गोपों को यह निश्चय हो ही गया था कि ये साक्षात भगवान हैं, तथापि अन्त में भगवान ने अपने योग बल से उन्हें अपने निर्विशेष स्वरूप का साक्षात्कार कराया और फिर वैकुण्ठलोक में ले जागर अपने सगुण स्वरूप का भी दर्शन कराया। इस प्रकार उन्होंने गोपों को रासदर्शन का अधिकारी बनाया। यह अधिकार बिना स्वरूप-साक्षात्कार के प्राप्त नहीं होता। आजकल व्रज में इसे छठी भावना कहते हैं- ‘छठी भावना रास की।’ पहली पाँच भावनाओं को क्रमशः पार कर लेने पर ही रासदर्शन का अधिकार प्राप्त होता है। पाँचवी भावना में देह-सुधि भूल जाती है- ‘पाँचे भूले देह-सुधि’। अर्थात इस भावना में ब्रह्मस्थिति हो ही जाती है। ऐसी स्थिति हुए बिना पुरुष रासदर्शन का अधिकारी नहीं होता। श्रीमद्भागवत में जहाँ गोपों को वैकुण्ठधाम में ले जाकर अपने सगुण-स्वरूप का साक्षात्कार कराने की बात आती है वहाँ उनके प्रत्यावर्तन के विषय में कोई उल्लेख नहीं है। इससे कुछ लोगों का ऐसा मत है कि यह भगवान के नित्यधाम की नित्यलीला का ही वर्णन है। इस लोक में यह लीला हुई ही नहीं थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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