भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
वेदान्तसिद्धान्त में भी यह युक्तियुक्त ही है। इस विषय में आचार्यों का ऐसा मत है कि जिस समय ब्रह्मज्ञान होता है उस समय आवरण नष्ट हो जाता है, किन्तु प्रारब्ध-भोगोपयोगी विक्षेप तो बना ही रहता है। ब्रह्मज्ञान से केवल मूलाविद्या का नाश होता है, लेशाविद्या तब भी रह जाती है। उसकी निवृत्ति प्रारब्ध क्षय होने पर होती है। इसी से श्रीनारद, सनकादि, शुकदेव और वसिष्ठादि परमसिद्ध ब्रह्मनिष्ठ महात्माओं की लोक में भी नाना प्रकार की चेष्टाएँ देखी जाती हैं। जिस प्रकार परम ब्रह्मनिष्ठ होने पर भी श्रीनारद जी को हरिनाम-संकीर्तन और सनकादि को हरिगुणगान का व्यसन था, उसी प्रकार श्रीशुकदेव जी को भी हरिकथामृत के पान का व्यसन था। जिस प्रकार स्वरूपानुभव हो जाने पर भी प्रारब्ध भोग के लिये इन्दियों की विषयों में प्रवृत्ति होेती है उसी प्रकार हरिगुणगान में भी प्रीति हो ही सकती है। वस्तुतः भगवान में आत्माराम-चित्ताकर्षकत्व एक गुण है। उसी से आकृष्ट होकर भगवान शुकदेव जी ने इस शास्त्र का अध्ययन किया था। इससे सिद्ध हुआ कि ऐसे पूर्ण परब्रह्म में परिनिष्ठत महामुनि शुकदेव जी की इस कारण से इस भागवत-शास्त्र के अध्ययन में प्रवृत्ति हुई, तथा इसके वर्णन में इसलिये भी प्रवृत्ति हुई कि जिससे विष्णुजन स्वयं ही आकर उन्हें मिल जाया करें। इस भागवत-शास्त्र में भगवान का दिव्यातिदिव्य रहस्य निहित है; अतः जिस प्रकार वशीकरण मन्त्र से लोगों को अपने अधीन कर लिया जाता है, उसी प्रकार इस परम मन्त्र के कारण भक्तजन स्वयं ही आकृष्ट हो जाते हैं। इसके सिवा भगवान के गुण, चरित्र और स्वरूप की माधुरी स्वयं भी ऐसी मोहिनी है कि बड़े-बड़े सिद्ध मुनीन्द्र भी उनके कीर्तन में प्रर्वत्त हो जाया करते हैं। भाष्कार भगवान शंकराचार्य ने नृसिंहतापिनीय उनिषद् भाष्य में कहा है- “मुक्ता अपि लीलया विग्रहं कृत्वा तं भजन्ते।” अर्थात मुक्तजन भी लीला से देह धारण कर भगवान का गुणगान किया करते हैं। यही बात सनकादि के विषय में कही जा सकती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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