भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
यद्यपि ऐसे महानुभावों की प्रवृत्ति ग्रन्थाध्ययन में नहीं हुआ करती, तथापि भगवत्लीलाओं से आकृष्टचित्त होने के कारण ही उन्होंने इस महासंहिता का अध्ययन किया था।
इस सम्बन्ध में एक इतिहास भी प्रसिद्ध है। एक बार श्रीशुकदेव जी संसार से उपरत होकर वन में चले गये और वहाँ ध्यानाभ्यास में तत्पर होकर समाधिस्थ हो गये। उनकी बुद्धिवृत्ति निखिल दृश्य प्रपंच का निरास कर अशेष-विशेष शून्य शुद्ध बुद्ध मुक्त परब्रह्म में लीन हो गयी और उन्हें बाह्य जगत का कुछ भी भान न रहा। इसी समय भगवान व्यासदेव के कुछ शिष्यगण उधर आ निकले। उन्होंने उन बालयोगीन्द्र को देखकर कुतूहलवश श्रीव्यास जी से जाकर कहा कि, भगवन! हमने वन में एक परम सुन्दर बालक को देखा है। वह बहुत दिनों से पाषाण-प्रतिमा के समान निश्चल भाव से एक ही आसन से बैठा हुआ है। उसे बाह्य जगत का कुछ भी भान होता नहीं जान पड़ता। तब भगवान व्यासदेव ने सारी परिस्थिति समझकर उन्हें एक श्लोक कण्ठ कराया और कहा कि तुम उस बालयोगी के पास जाकर इसे सुमधुर ध्वनि से गाया करो। तदनन्तर शिष्यगण वन में जाकर इस श्लोक का गान करने लगे-
शिष्यों के निरन्तर गान करने से भगवान शुकदेव जी के अन्तःकरण में इस श्लोक के अर्थ की स्फूर्ति हुई। यह नियम है कि जितना ही चित्त शुद्ध होगा उतना ही शीघ्रतर उसमें भगवत्तत्त्व का अनुभव होगा। इसी से किन्हीं-किन्हीं उत्तम अधिकारियों को, जिनकी उपासना पूर्ण हो चुकी होती है, महावाक्य का श्रवण करते ही स्वरूप-साक्षात्कार हो जाता है। उस श्लोकार्थ की स्फूर्ति होने पर भगवद्विग्रह की अनुपम रूपमाधुरी ने उनके चित्त को क्षुभित कर दिया। उनकी समाधि खुल गयी और उन्होंने श्रीश्यामसुन्दर की स्वरूप माधुरी का वर्णन करने वाले इस श्लोक को कई बार उन बालकों से कहलाया और किनती ही बार आनन्दविभोर होकर स्वयं भी कहा। शिष्यों ने भगवान व्यासदेव के पास उन्हें यह सारा वृत्तान्त सुनाया। श्रीव्यास जी सोचने लगे कि इसे सुनकर भी वह आया क्यों नहीं! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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