भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इसका उत्तर श्रीसूत जी महाराज ने इस प्रकार दिया है-
सूत जी कहते हैं- ठीक है, यद्यपि श्रीशुकदेव जी ऐसे ही निर्विशेष परब्रह्म में परिनिष्ठित थे, शास्तृ, शिष्य आदि सम्बन्धों में उनकी प्रवृत्ति होनी सर्वथा असम्भव थी; तथापि उन्हें एक व्यसन था। उससे आकृष्ट होकर ही उन्होंने इस महान आख्यान का अध्ययन किया था। व्यास-सूनु भगवान शुकदेव जी की बुद्धि श्रीहरि के गुणों से आक्षिप्त थी, वह हरि गुणगान की मनोमोहिनी माधुरी में फँसी हुई थी। ‘हरते इति हरिः’ जो बड़े-बड़े योगीन्द्र-मुनीन्द्रों के मन को भी हर लेते हैं उन दिव्य मंगलमूर्ति भगवान का नाम ही ‘श्रीहरि’ है। भगवान के परम दिव्य नाम, गुण, चरित्र एवं स्वरूप ऐसे ही मधुर हैं। उन्हीं के गुणों ने श्रीशुकदेव जी ने शुद्धब्रह्माकार वृत्ति सम्पन्न मन को भी हठात् अपनी ओर आकर्षित कर लिया था। इसी से उन्होंने इस बृहत् संहिता का स्वाध्याय किया था। अहा! उन श्रीव्यासनन्दन की हरि भक्ति प्रवणता का कहाँ तक वर्णन किया जाय? यद्यपि निरन्तर आत्मसुख में विश्रान्त रहने के कारण उनकी मनोवृत्ति किसी दूसरी ओर नहीं जाती थी; उनके हृदय से द्वैतप्रपंच का सर्वथा तिरोभाव हो गया था; तथापि परमानन्दकन्द श्रीकृष्णचन्द्र की ललित लीलाओं ने उन्हें अपनी ओर आकृष्ट कर ही लिया। इसी से उन्होंने भगवत्लीला के निगूढ़तम रहस्यभूत इस महाग्रन्थ का आविर्भाव किया।
‘स्वसुखनिभृतचेताः’ स्वानन्द से ही पूर्ण है चित्त जिनका, यद्यपि प्राणियों का चित्त विषयों से पूर्ण देखा जाता है, तथापि स्वभावतः वह आत्मानन्द से ही पूर्ण है। जिस प्रकार घट की आकाश द्वारा स्वाभाविक पूर्णता जलादि द्वारा होने वाली अस्वाभाविक पूर्णता से निवृत्त-सी हो जाती है, उसी प्रकार चित्त की स्वाभावकि ब्रह्माकाराकारिता उसकी अस्वाभाविक विषयाकाराकारिता से निवृत्त हुई-सी जान पड़ती है। किन्तु श्रीशुकदेव जी का चित्त तो विषयव्यामोह से निवृत्त होकर आत्मानन्द में ही विश्रान्त हो गया था। इसी से उन्हें ‘स्वसुखनिभृतचेताः’ कहा है। इस प्रकार 'तद्व्युदस्तान्यभाव' आत्मानन्द में विश्रान्त होने के कारण अन्य पदार्थों से जिनकी सत्यत्वबुद्धि निवृत्त हो गयी है, ऐसे जिन शुकदेव जी ने ‘अजितरुचिरलीलाकृष्टसारः’ जिनकी ब्रह्माकारवृत्ति की निश्चलता भगवान अजित की रुचिर लीला से अपहृत हो गयी है; ऐसे होकर कृपावश इस तत्त्व प्रदर्शक पुराण का विस्तार किया, उन निखिलपापापहारी श्रीव्यासनन्दन को मैं प्रणाम करता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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