भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इससे सिद्ध होता है कि उनका कथन भी कोई साधारण बात नहीं है। महापुरुष कोई ग्राम्य कथा नहीं कहा करते। उनके सामने तो ग्राम्य कथाओं का विघात हो जाया करता है, किसी दूसरे को भी ऐसी बात कहने का साहस नहीं होता, फिर वे स्वयं तो ऐसी बात कहेंगे ही क्यों? वे अवश्य किसी दिव्यातिदिव्य रहस्य का ही उद्घाटन करेंगे। यह तो रही वक्ता की बात; उनके सिवा श्रोता भी कैसे हैं? महाराज परीक्षित! ‘गर्भदृष्टमनुध्यायन्परीक्षेत नरेष्विह’ अर्थात जिन्होंने जन्म लेते ही इधर-उधर देखकर लोगों में यह परीक्षा करनी चाही थी कि जिस मनोमोहिनी मूर्ति को मैंने गर्भ में देखा था वह यहाँ कहाँ है, जो गर्भ में ही भगवान का दर्शन कर चुके थे। ध्रुवादि ने साधन द्वारा योगमाया का निराकरण करके भगवत्तत्त्व का साक्षात्कार किया था, किन्तु इन्हें तो भगवान की अनुकम्पा से ही उनका दर्शन हो गया था। उनके वंश का महत्त्व भी सुस्पष्ट ही है। इस प्रकार जैसे भगवान बादरायणि मातृमान्, पितृमान् और आचार्यवान् हैं, वैसे ही पार्थ-पौत्र महाराज परीक्षित भी हैं। वे यद्यपि स्वभाव से ही तत्त्वज्ञ, शास्त्रज्ञ, ऐहिक, आमुष्मिक विषयों से विरक्त एवं सर्वान्तरतम प्रत्यगात्मा का साक्षात्कार करने के इच्छुक थे, तथापि राजा होने के कारण किसी श्रृंगाररस प्रधान कथा के श्रवण में उनकी अभिरुचि होनी सम्भव थी। किन्तु इस समय तो उन्हें अनिवार्य विप्रशाप हो चुका था; इसलिये सात दिन में उनकी मृत्यु निश्चित हो जाने के कारण वे परम उपरत हो गये थे। यदि साधारण मनुष्य को भी अपनी मृत्यु का निश्चय हो जाय तो वह किसी ग्राम्य कथा के श्रवण में प्रवृत्त नहीं हो सकता; फिर महाभागवत महाराज परीक्षित जैसे सर्वसाधन सम्पन्न पुरुषों की प्रवृत्ति तो उसमें हो ही कैसे सकती है? वस्तुतः श्रीमद्भागवत कोई साधारण ग्रन्थ नहीं है। श्रीशुकदेव जी का तो मिलना ही बहुत दुर्लभ था; फिर जिस ग्रन्थ का वे वर्णन करें, उसका महत्त्व क्या कुछ साधारण हो सकता है? जिस समय शौनकादि महर्षियों ने यह सुना कि इस ग्रन्थ का वर्णन श्रीशुकदेव जी ने किया है तो वे आश्चर्यचकित हो गये और बोले-
‘वे व्यासनन्दन तो महायोगी, समदर्शी, विकल्पशून्य, एकान्तमति और अविद्यारूप निद्रा से जगे हुए थे। वे तो प्रच्छन्न भाव से मृढ़वत् विचरते रहते थे। वे किस प्रकार इस बृहत् आख्यान का श्रवण कराने में प्रवृत्त हो गये?” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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