भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
यों तो भगवान की सभी लीलाएँ लोकोत्तर आनन्दातिरेक का संचार करने वाली हैं, तथापि उनकी व्रजलीलाएँ तो महाभाग भक्तों एवं कविपुंगवों का सर्वस्व ही हैं। उनमें भी, जिसका आविर्भाव एकमात्र रसाभिव्यक्ति के लिए ही हुआ था, वह महारास तो मानो सर्वथा माधुर्य का ही विलास था। प्रभु की रासक्रीड़ा जैसी मधुर है वैसी ही रहस्यमयी भी है। उसके भीतर जो गुह्यातिगुह्य रहस्य निहित है वह आपाततः दृष्टिगोचर नहीं हो सकता। वह इतना गूढ़ है कि उसमें जितना प्रवेश किया जाता है उतना ही अधिकाधिक दुरवगाह्य प्रतीत होता है। हम यथामति उसका विचार करने का प्रयत्न करते हैं। इस रासलीला का वर्णन श्रीमद्भागवत दशम स्कन्ध के अध्याय उन्तीस से तैंतीस तक है। ये पाँच अध्याय ‘श्रीरासपंचाध्यायी’ के नाम से सुप्रसिद्ध हैं। ये श्रीमद्भागवत रूप कलेवर के मानों पाँच प्राण हैं; अथवा यदि इन्हें श्रीमद्भागवत का हृदय का जाय तो भी अयुक्त न होगा। रासपंचाध्यायी के आरम्भ में ‘श्रीबादरायणिरुवाच’ ऐसा पाठ है। इस पाठ का भी एक विशेष अभिप्राय है। यहाँ ‘बादरायणिः’ शब्द से वक्ता का महत्त्व द्योतित कर उसके द्वारा प्रतिपादन किये जाने वाले विषय की महत्तवा प्रदर्शित की गयी है। लौकिक नीतियों के विषय में तो प्रायः इस बात पर ध्यान नहीं दिया जाता कि उनका वक्ता कौन है; वहाँ केवन उस उक्ति की महत्ता का ही विचार किया जाता है। “ननु वक्तृविशेषनिःस्पृहा गुणगृह्या वचने विपश्चितः।” किन्तु धार्मिक अंशों में यह नियम नहीं है। वहाँ तो वक्ता की योग्यता का विचार सबसे पहले किया जाता है। जिस प्रकार गायत्री मन्त्र है, उसका अर्थ किसी भी भाषा में कितने ही सुन्दर ढंग से कर दिया जाय, तथापि जापक की उसमें श्रद्धा नहीं हो सकती और न मूल गायत्री के जप से होने वाला महान फल ही उससे प्राप्त हो सकता है। अतः धर्म के विषय में मनुष्य को ‘वक्तृविशेष-सस्पृह’ होने की आवश्यकता है। यहाँ वक्ता के कथन की अपेक्षा उसके व्यक्तित्व का प्रामाण्य ही अधिक अपेक्षित है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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