विषय सूची
भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
क्या ईश्वर और धर्म बिना काम चलेगा?
कोई भी मार्ग, यदि वह परिणाम में हानिकारक न हो तभी स्वीकृत होना चाहिये। जिस विषसंयुक्त भोजन से अन्त में मौत के मुँह में पड़ना पड़े, फिर भले ही उससे तात्कालिक तुष्टि, पुष्टि, क्षुन्निवृत्ति भी हो तो क्या लाभ? जिस शास्त्र या धर्मविरुद्ध उपाय से तात्कालिक लाभ भी हो, परन्तु यदि अन्त में पतन हो तो उससे क्या लाभ? इसीलिये तो बुद्धिमानों ने अनर्थानुबन्ध, अकर्मानुबन्ध, अननुबन्ध अर्थ को छोड़कर अर्थानुबन्ध और धर्मानुबन्ध अर्थ को ही श्रेष्ठ समझा है। धर्मोल्लंघन करके प्राप्त किये गये अर्थ को अनादरणीय बतलाया है।
‘दूसरों को सन्ताप न पहुँचाकर, खलों के घर न जाकर, सज्जनों का मार्गलङ्घन न करके जो थोड़ी भी चीज है, वही बहुत बड़ी समझनी चाहिये-
‘अतिक्लेश से, धर्मोल्लंघन से, शत्रुप्रणिपात से जो अर्थ मिलता हो, उसमें कभी भी मन न लगाया चाहिये।’ आस्तिकों, शास्त्रज्ञों का यह आग्रह नहीं कि कोई नवीन मार्ग सामाजिक, नैतिक, राष्ट्रीय उत्थान के लिये न ग्रहण करना चाहिये। यदि कोई सरल-सुगम विर्विघ्न उपाय प्राप्त होता हो तो शास्त्रोक्त मार्ग की कठिनाई का अनुभव क्यों करें? “अक्के चेन्मधु विन्देत किमर्थं पर्वतं व्रजेत्।” ‘यदि गृहकोण में मधु मिल जाय तो मधु के लिये पर्वत पर क्यों जाया जाय?’ परन्तु यदि शास्त्र विरुद्ध मार्ग से परिणाम में पतन और नरकादि दुःख भोगना पड़े तब तो उसकी उपेक्षा उचित ही है। यदि अध्यात्मवादी आस्तिकों की भौतिकवादियों से विशेषता है। भौतिकवादी समाजिक या वैयक्तिक अभ्युत्थान के मार्ग को निर्धारण करते हुए धार्मिक-आध्यात्मिक के हानि-लाभ की चिन्ता नहीं रखते। अध्यात्मवादी, धर्मवादी लोग भी पूर्णरूप से राष्ट्रीय, सामाजिक अभ्युत्थान का प्रयत्न करते हैं, परन्तु सर्वदा यह ध्यान रखते हैं कि उसी उपाय का अवलम्बन किया जाय जिससे लाभ की अपेक्षा परिणाम में हानि न हो और परलोक न बिगड़े। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज