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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
क्या ईश्वर और धर्म बिना काम चलेगा?
ऐसी स्थिति में भी निराश्रय निष्कपट भाव से भगवान को पुकारने से काम चल सकता था, परन्तु इस समय भगवान से विश्वास उठ गया है। गिरते समय प्राणी के हाथ-पाँव यद्यपि स्वभाव से ही किसी सहारे को टटोलने लगते हैं और दुनिया के सम्पूर्ण सहारों के कमजोर होने पर, एकमात्र भगवान का ही बल रह जाता है। अतः स्वाभाविक रूप से भगवान का आश्रयण ही शेष रह जाता है। फिर भी जब ब्रह्मा, शेष आदि के कहने पर भी भगवान के पुकारने में विश्वास न हो, तो इसे राष्ट्र का दुर्भाग्य ही समझना चाहिये। रहा यह कि जप, पाठ, पूजा करते हुए भी सोमनाथ का मन्दिर टूट गया, विश्वनाथ भाग गये, हिन्दू जाति का सर्वस्व लुट गया; फिर ईश्वर या धर्म को पुकारने से क्या लाभ? परन्तु यदि ठण्डे दिल से विचार करें, तो इस शंका का कुछ भी महत्त्व नहीं है। पहले तो यह सोचना चाहिये कि क्या किसी उपाय के कभी असफल हो जाने मात्र से, सर्वदा के लिये उसे व्यर्थ और बेकाम समझ लेना उचित है? क्या कभी वायुयान के फेल हो जाने या किसी यन्त्र के कलपुर्जों के बेकार हो जाने पर सर्वदा के लिये उनको बेकार समझ लिया जाता है? देखते तो यह हैं कि बार-बार वायुयानों, मोटरों, रेलों तथा अन्यान्य यन्त्रों के बेकार या हानिकारक होने पर भी उनका निर्माण और संचालन बन्द नहीं हुआ। बडे़-बड़े आविष्कारक वैज्ञानिक बार-बार विफल होने पर भी प्रयत्न का पीछा नहीं छोड़ते, फिर लाखों सफलता के भी तो उदाहरण विद्यमान हैं, फिर उनके आधार पर विश्वास ही क्यों न किया जाय? असफलता का कारण कोई त्रुटि ही समझी जाती है। किसी यन्त्र के एक छिद्र या कीलों की गड़बड़ी या कमी-वेशी से वह व्यर्थ या हानिकारक हो सकता है। इसी तरह जो कार्यकारण-भाव अपैरुषेय अत: भ्रम-प्रमादादि स्पर्श से शून्य प्रामाणिक शास्त्र से सिद्ध है, कतिपयस्थलीय व्यभिचार दर्शन मात्र से उसका विघटन नहीं समझा जा सकता। जैसे वैज्ञानिक-निर्दिष्ट पद्धति से विपरीत किंचित भी उलट-फेर होने पर यन्त्र-संचालन और निर्माण व्यर्थ ही नहीं, हानिकारक समझे जाते हैं, वैसे ही शास्त्र-निर्दिष्ट पद्धति में किंचित भी गड़बड़ी होने पर जप, पाठ, पूजा आदि धर्म बेकार या हानिकारक हो सकते हैं, परन्तु इसते मात्र से ही उन शास्त्रों का अप्रामाण्य या उन जप, पाठ, पूजाओं में सर्वदा के लये अश्रद्धा कदापि उचित नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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