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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
सर्वसिद्धान्त-समन्वय
साथ ही बोध और प्रकाश के लिये प्राणिमात्र में उत्सुकता दिखाई देती है। पशु-पक्षी भी स्पर्श से, आघ्राण से, किसी तरह ज्ञान के प्रेमी हैं। यह ज्ञान की वाञ्छा उत्तरोत्तर बढ़ती रहती है। हमें अब अमुक तत्त्व का ज्ञान हो, अब अमुक का हो, इतिहास, भूगोल, खगोल, भूततत्त्व एवं अधिभूत, अध्यात्म, अधिदैव सभी तत्त्वों को जानने को मन चाहता है। किंबहुना, बिना सर्वज्ञता के, ज्ञान में सन्तोष नहीं होता। पूर्ण सर्वज्ञता कहाँ हो सकती है यह विवेचन करने से स्पष्ट हो जाता है कि सर्व पदार्थ जिस स्वप्रकाश, अखण्ड, विशुद्ध भान (बोध) में कल्पित हैं, वही सर्वावभासक एवं सर्वज्ञ हो सकता है। क्योंकि प्रकाश या भान अत्यन्त असंग एवं निरवयव और अनन्त है। उसका दृश्य के साथ सिवा आध्यासिक सम्बन्ध के और संयोग, समवाय आदि सम्बन्ध बन ही नहीं सकता। अतः यदि सर्वज्ञ होने की वाञ्छा है तो सर्वावभासक, सर्वाधिष्ठान, विशुद्ध, अखण्ड बोध होने की ही वाञ्छा है। यह अखण्ड बोध ही भगवान का ‘चित्’ रूप है। जैसे पूर्वोक्त अखण्ड, अनन्त, स्वप्रकाश सत्ता या अस्तित्व ही अपना तथा सबका निज रूप है, वैसे ही यह अबाध्य, अखण्ड बोध भी सबका अन्तरात्मा है। संसार में पशु, कीट, पतंग कोई भी ऐसा नहीं है जो आनन्द के लिये व्यग्र न रहता हो। प्राणिमात्र के देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार आदि की जितनी भी चेष्टाएँ एवं हलचलें हैं, वे सभी आनन्द के लिये हैं। बिना किसी प्रयोजन के किसी की भी प्रवृत्ति नहीं होती। एक उन्मत्त भी, चाहे भ्रम या अज्ञान से ही सही, आनन्द के लिये ही समस्त चेष्टाओं को करता है। समस्त वस्तुओं में भ्रान्त होता हुआ भी प्राणी जिसके लिये नाना चेष्टाएँ करता है उसके विषय में उसे सन्देह या भ्रम अथवा अज्ञान हो, यह कैसे कहा जा सकता है? इस तरह जिसके लिये समस्त चेष्टाएँ हो रही हैं, वह आनन्द बहुत प्रसिद्ध है। संसारभर की समस्त वस्तुओं में प्रेम जिसके लिये हो और जो स्वयं निरतिशय एवं निरुपाधिक प्रेम का आस्पद हो अर्थात जो अन्य के लिये प्रिय न हो, वही ‘आनन्द’ होता है। देखते ही हैं कि समस्त आनन्द के साधनों में प्रेम अस्थिर होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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