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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
सर्वसिद्धान्त-समन्वय
यदि द्वैतसिद्धि ही मोक्ष या परम पुरुषार्थ की हेतु होती तो अनायास ही समस्त प्राणी अब तक विमुक्त हो गये होते। नाना प्रकार के कर्मोपासना-ज्ञानादि साधनोपदेश करने वाले वेदशास्त्रों की आवश्यकता ही नहीं होती। कठिनातिकठिन तप आदि की भी कोई आवश्यकता न होती! इसीलिये सूरदास प्रभृति अर्वाचीन भक्त शिरोमणि भी निःसार संसार की सत्यता-असत्यता के झगड़े में न पड़कर केवल भव भयहारी भगवान के प्रेम में ही निमग्न रहते थे। प्रेमतत्त्व पर भी यदि कुछ गम्भीर दृष्टि से विचार किया जाय तो वस्तुतः प्रेमतत्त्व व्यवधानाऽसहिष्णु होने से अभेद का ही पोषक है। जहाँ भावुकों को अनुरागातिशय से प्रियतम के संश्लेषकाल में रोमावलियों का भी उद्गति व्यवधायक होने से सहृदयहृदयवेद्य अनिर्वाच्य व्यथा पहुँचाने वाली होती है, पुत्रवत्सला जननी प्रिय पुत्र को प्रेम से हृदय में लगाकर पुनः पुनः चिपटाने का प्रयत्न करती है, तब क्या प्रेम को व्यवधानाऽसहिष्णु नहीं कहा जा सकता? वस्तुतः जहाँ जितनी मात्रा में प्रेमतत्त्व का आधिक्य है वहाँ उतनी ही मात्रा में व्यवधान या पार्थक्य असह्य है। इन्हीं अभिप्रायों से उत्तरोत्तर आचार्यों ने जीव तथा परमेश्वर के असाधारण सम्बन्ध अर्थात व्यवधान रहित सम्बन्ध-सिद्धि के लिये विशिष्टाऽद्वैत, द्वैताऽद्वैत इत्यादि अभेदानुगुण पक्ष स्वीकार किया है। श्रुति भी “आत्मनस्तु कामाय देवाः प्रिया भवन्ति” इत्यादि वचनों से स्वभिन्न देवादि में गौण प्रेम तथा व्यवधानशून्य स्वात्मा में ही सर्वातिशायी प्रेम को प्रदर्शित कर प्रेम को व्यवधानाऽसहिष्णुत्व स्वाभाव्य सिद्ध करती है। प्रेम का स्वरूप ही वस्तुतः रसमय है। रसस्वरूप वस्तु परमात्मा ही है। “रसौ वै सः” भाव-विशेषों से द्रुतचित्त पर अभिव्यक्त जो निखिल-रसामृत-सिन्धु भगवत तत्त्व है वही प्रेमपदवाच्य होता है। प्रेम उक्त प्रकार से स्वाश्रय-विषय में व्यवधान मिटाने के अनुकूल है। जैसे रश्मिजाल या प्रकाश अपने उद्गमस्थल आदित्य में ही निरतिशय तथा अव्यभिचारी भाव से रहता है, अन्यत्र सातिशय तथा व्यभिचारी भाव से ही रहता है। ठीक वैसे सर्वान्तरत्तम प्रत्यगभिन्न परम प्रेमास्पद रसस्वरूप भगवत्तत्त्व से ही प्रादुर्भूत रसमय प्रेमतत्त्व निरतिशय तथा अव्यभिचारी भाव से अपने उद्गमस्थल ही में होता है। अन्यत्र सातिशय एवं व्यभिचारी भाव से होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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