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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
सर्वसिद्धान्त-समन्वय
रहा भगवद्व्यतिरिक्त समस्त प्रपंच को मिथ्या बतलाना, सो भगवान तथा भगवद्भक्त दोनों को ही अभीष्ट है। भगवान ही स्वयं कहते हैं, यही बुद्धिमानों की बुद्धिमत्ता है जो कि मरणशाली मिथ्या शरीर से मुक्त परम सत्य अमृत को प्राप्त कर लेते हैं।
“तस्मादिदं जगदशेषमसत्स्वरूपं, स्वप्नाभम्।”[2]
समस्त शास्त्रों का परम तात्पर्य केवल भगवत्तत्त्व में ही है, उसी परमतत्त्व प्राप्ति के लिये अवान्तर तात्पर्य-विषयभूत अन्यान्य विषयों का निर्देश है। इसी अभिप्राय से “सर्वे वेदा यत् पदमामन्ति” इत्यादि उक्तियाँ हैं। मिथ्या भी संसार पूर्वकथनानुसार बिना सम्यक् धर्मानुष्ठान किये नहीं निवृत्त हो सकता। प्राचीन तथा अर्वाचीन साम्प्रदायिक कलहशून्य वैष्णव ज्ञानेश्वर, तुकाराम, तुलसीदास आदि सभी महानुभावों ने वैराग्यादि के लिये संसार के मिथ्यात्व पर बड़ा जोर दिया। देहादि को ही सत्य मानने वाले प्राकृत पुरुषों से देहादिपोषणार्थ कितने अनिष्टो की सम्भावना है, यह विज्ञों से तिरोहित नहीं है। श्रीसूरदास, हरिदास प्रभृति भावुक-वृन्दों ने भी प्रियतम श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द के चरित्रगान में ही अपना अमूल्य समय व्यतीत किया, न कि निःसार जगत की सत्यता-प्रतिपादन में। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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