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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
सर्वसिद्धान्त-समन्वय
उनमें यथारुचि त्रिपुण्ड्र, ऊर्ध्वपुण्ड्र, शिव या विष्णु का सम्यक् आदर है। इस वास्ते इन विषयों में अद्वैतियों का किसी के साथ विरोध नहीं है। तीर्थ, व्रत, मन्दिर, शिव, विष्णु, राम, कृष्ण, शक्ति आदि प्रतिमार्चन, वर्णाश्रमानुसार श्रौतस्मार्त्त-कृत्य आदि विषयों का उनके यहाँ कितना आदर या प्रचार है इसका पता काश्यादि पुण्यस्थलों में ही नहीं प्रत्युत ग्रामीणों में भी उनके अनुयायियों के दर्शन से ही सुस्पष्ट लग सकता है। भगवान शंकराचार्य का सिद्धान्त है कि अनादिकाल से प्रवृत्त यह संसारचक्र बिना परमतत्त्व, परब्रह्म के स्वरूप-साक्षात्कार के कदापि नहीं शान्त हो सकता। भगवत्स्वरूप साक्षात्कार के लिये वर्णाश्रमानुसार शिष्टाचार प्राप्त सभी लौकिक-वैदिक कृत्य अनुष्ठान सहित भगवद्भक्ति ही परमावश्यक है।
इत्यादि वचनों के के अनुसार अद्वैत तत्त्व अव्यवहार्य है, अतः व्यावहारिक सत्य नहीं कहा जा सकता। द्वैत प्रपंच ही व्यवहार्य होने से व्यावहारिक सत्य कहा जा सकता है। द्वैत-अद्वैत समान सत्ता से विरुद्ध होते हैं अतः पारमार्थिक व्यावहारिक सत्ताभेद से व्यवस्था उचित है। इसी वास्ते उन्होंने स्वयं बदरीनारायण आदि पुण्य स्थलों में शतशः शिव और विष्णु की प्रतिमाएँ स्थापन करने भक्ति का सम्यक प्रचार किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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