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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
सर्वसिद्धान्त-समन्वय
बुद्धिमान तो अपने स्वप्रकाशात्मक पूर्ण परम प्रेमास्पद को ही सर्वस्वरूप सर्वोपास्य समझकर मुदित होते हैं और रागद्वेषादि रहित भगवान के किसी एक रूप में निष्ठा रखते हैं। जैसे किसी मर्मज्ञ भावुक की उक्ति प्रसिद्ध है-
कुछ सांप्रदायिक महानुभाव श्रीपार्वतीरमण सदाशिवजी तथा श्री विष्णुजी के प्रणाम आदि में अपने अनन्य वैष्णवत्व या शैवत्व की त्रुटि समझते हैं परन्तु विचार करने से सुस्पष्ट प्रतीत होता है कि शैव या वैष्णव केवल विष्णु या शिव को प्रणाम करना छोड़ देने से अनन्य वैष्णव या शैव नहीं हो सकते क्योंकि चाहे कोई शिव को प्रणामादि करना छोड़ भी दे परन्तु कामिनी-कांचन-कैकर्य कैसे छूट सकता है? उसके बिना छूटे तो लोगों को विधर्मियों के पीछे-पीछे स्वार्थवश घूमना या नत होना अपरिहार्य ही है, तब अनन्य शैव या अनन्य वैष्णव कैसे हो सकते हैं? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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