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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
सर्वसिद्धान्त-समन्वय
यदि उनकी निन्दा में ही तात्पर्य होता तो “विद्यया देवलोकः” इत्यादि श्रुतिसिद्ध फल अनुपपन्न होगा, क्योंकि कहीं पर भी निषिद्ध कृत्य की शुभफलकता श्रुतिसिद्ध नहीं है। इस वास्ते वैदिकों ने समुच्चय विधान की स्तुति के ही लिये एक-एक की निन्दा मानी है। ठीक इसी तरह उक्त निन्दाओं का भी तात्पर्य निन्दा में न होकर स्वोपास्य देव में दृढ़ता के लिये स्तुति में ही है। किंवा जैसे कोई कौतुकी अपनी मुग्धा भार्या को चिढ़ाने के लिये अपने कुत्ते को श्याल के नाम से पुकारकर गाली देता है, न कि श्याल को गाली देता है। मुग्धा अपने भ्राता को गाली समझकर चिढ़ती है। शिवपुराणादि-प्रतिपाद्य अनन्तकोटि ब्रह्माण्डाधीश्वर शिवतत्त्व में ही दृढ़ निष्ठा के लिये शिवस्वरूपाभिन्न विष्णुपुराणादि प्रतिपाद्य सर्वेश्वर श्रीविष्णु के नाम से ही ब्रह्माण्डान्तर्गत कार्य विष्णु की निन्दा की गयी है, तथा विष्णुपुराणादि-प्रतिपाद्य अनन्तकोटि-ब्रह्माण्डाधीश्वर श्रीविष्णु तत्त्व के उपासकों के निष्ठादार्ढ्यार्थ तदभिन्न ही श्रीशिव के नाम से कार्य ब्रह्मकोटि में प्रविष्ट रुद्र की निन्दा की जाती है। कहीं-कहीं तो शिव या विष्णु की उपासना से नरक होना तक लिखा पाया जाता है। ऐसे स्थलों में भी नरक का अर्थ नरक न होकर कार्यकारणातीत परमतत्त्व-प्राप्ति की अपेक्षा से ब्रह्मलोकादि ही नरक पद से कहे गये हैं; क्योंकि वेदों में भी “असुर्या नाम ते लोकाः” इत्यादि मन्त्र में परमात्म-तत्त्व की अपेक्षा देवताओं को भी असुर बतलाया गया है। असुरों का अर्थात अशोभन परमात्म व्यतिरिक्त अशोभन प्रपंच में या असुप्राणादि अनात्मा में रमण करने वालों के स्वभूत अदर्शनात्मक तम से आवृत वह लोक अर्थात फल हैं, जहाँ “आत्महन” आत्मा के वास्तविक नित्य शुद्धबुद्ध-स्वरूप को न जानकर कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि अनेक कलंक को आरोपण करने वाले अनात्मज्ञ कहे जाते हैं। जैसे यहाँ देवलोकादि की निन्दा में तात्पर्य नहीं, किन्तु आत्मज्ञानार्थ प्रयत्नातिशय करने ही के लिये है वैसे शास्त्रों के गम्भीर अभिप्राय किसी की निन्दा में न होकर स्वोपास्य निष्ठा या (किसी) बड़े कल्याण-विषयक प्रयत्न में प्रवृत्ति के लिये समझना चाहिये। अनभिज्ञ लोग मुग्धा भार्या की तरह दुःखी होकर परस्पर कलह करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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