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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
सर्वसिद्धान्त-समन्वय
इस वास्ते यद्यपि द्वैत में अद्वैत का अन्तर्भाव नहीं हो सकता, तथापि अद्वैत में द्वैत का अन्तर्भाव हो सकता है। लोक में देखते ही हैं कि एक वटबीज से अनन्त वट-वृक्ष, एक मृत्तिका से अनन्त घटशरावादि पात्र होते हैं। श्रुति भी- “एकोऽहं बहु स्याम्, तदात्मानमेवाऽकुरुत” इत्यादि वाक्यों से एक का ही बहुभवन बतला रही है। तस्मात् जैसे महासमुद्र में वायु के योग से तरंग फेन, बुद्बुद अनेक विकार स्वरूप से समुद्र का ही प्रादुर्भाव होता है, उसी तरंग अनिर्वाच्य भगवदीय शक्ति के तादृश ही योग से अनिर्वाच्य प्रपंच रूप से निरवयव निष्क्रिय, प्रज्ञानानन्दघन का अनिर्वाच्य प्रादुर्भाव होना श्रुतिसिद्ध है। भगवच्छक्ति की अनिर्वचनीयता तथा तत्कृत द्वैत का परमार्थ सत्य अद्वयानन्दब्रह्म के साथ अविरोध दिखा ही चुके हैं। अस्तु, जैसे प्रदीपशिखा या प्रकाश स्वसन्निरहित स्वच्छता तारतम्योपेत बहुसंख्यक काँच के योग से तत्तदाकाराकारित हो जाती है, क्योंकि प्रकाश्य को प्रकाशता हुआ प्रकाश प्रकाश्याकार हो ही जाता है, ठीक उसी तरह आनन्दमय से लेकर अन्नमय ही पर्यन्त नहीं, अपितु तत्तद् इन्द्रियों द्वारा संसृष्ट शब्दाद्यात्मक पुत्र-कलत्रादि पर्यन्त के सन्निधान से तत्तदाकाराकारित विशुद्ध आत्मतत्त्व ही हो जाता है। उपाधि के सम्बन्ध से उपहित की उपाधिस्वरूपवता स्फटिकादि में प्रसिद्ध है। अत: तत्तदुपाधियों के सम्बन्ध से उनके साथ अभेदभावापन्न आत्मा का आनन्दमय, विज्ञानमय, मनोमय, प्राणमय, अन्नमय तथा पुत्ररूप से निर्देश श्रुतियों में पाया जाता है। इसी वास्ते सकलविभ्रमास्पद परमतत्त्वा में नाना प्रकार वादिविप्रतिपत्ति स्वस्वति वैभवानुसार तत्त्व ग्रहण यह सभी समंजस है। उन्हीं लोकबुद्धि-सिद्ध स्वरूपों का सोपानारोह क्रम से परमात्मतत्त्व-प्रतिपत्ति के लिये मातृपितृशतादपि हितैषिणी भगवती श्रुति उत्तरोत्तर अनुवाद करती हैं। पुत्रादि से आत्मभाव की व्यावृत्ति के लिये अन्नमय देह में आत्मभाव रखने वाले चार्वाक का भी मत अभिमत होने से अद्वैत में उपयुक्त है। देह से आत्मभाव व्यावृत्यर्थ प्राणमय में भी आत्मभाव अपेक्षित है। प्राणमय से आत्मबुद्धि हटाने के लिये मनोमय में आत्मभाव भी ठीक ही है एवं अभासान्वित क्षणिकबुद्धि वृत्तिसन्तति में तथा सन्ततिक्षय रूप में विज्ञान तथा शून्य का अभिमान रखने वाले विज्ञानवादी एवं शून्यवादी बौद्धों का भी मत परमतत्त्व प्रतिपत्ति में क्रमशः पूर्वप्रतिपन्न आत्मभाव व्यावृत्ति के लिये उपयुक्त हो सकता है। संघात व्यतिरिक्त शरीर परिमाण आत्मा मानने वाला “आहंत” सिद्धान्त भी संघाताभिमान-व्यावृत्ति के लिये उपादेय ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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