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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
सर्वसिद्धान्त-समन्वय
जैसे ‘शैव’ या ‘वैष्णव’ लोगों की कट्टरता प्रसिद्ध है; सुना जाता है कि शिवकांची, विष्णुकांची आदि परमपुण्य स्थलों में प्रथम ऐसी दशा थी कि एक दूसरों के देवता के उत्सव या रथयात्रा आदि काल में ‘अभद्र’ अर्थात शोक के चिह्न एवं अवहेलना का भाव प्रदर्शित किया करते थे। विष्णुभक्त शिव की निन्दा और शिव भक्त विष्णु की निन्दा करते थे। भस्म, रुद्राक्ष, ऊर्ध्वपुण्ड्र, तप्तमुद्रा, कण्ठी आदि विषयों पर ही अतिगर्हणीय कलह करते थे। प्रज्ञा का तत्त्व पक्षपात होना स्वभाव है। जरा ध्यान देकर विचारिये कि क्या उक्त समस्त सिद्धान्त सोपानारोह क्रम से किसी सिद्धान्तभूत परमार्थ सत्य परमतत्त्व में पर्यवसित होते हैं; अथवा परस्पर-विरुद्ध होने से सुन्दोपसुन्दन्याय से निर्मूल हो जाते हैं? द्वितीय पक्ष तो ठीक नहीं मालूम पड़ता, क्योंकि भला थोड़ी देर के लिये बाह्यों छोड़ भी दें, तो भी तत्तद्वादाभिमानियों से अभिमत तत्तदेवताओं के अवतारभूत तत्तदार्चाय मात्सर्यादि दोषशून्य “प्रमाणं परमं श्रुतिः” का उद्घोष करते हुए “सर्वभूतानुकम्पया” प्रवृत्त होकर अतात्त्विक निष्प्रयोजन सिद्धान्त-स्थापन क्यों करेंगे? इस वास्ते प्रथम पक्ष ही में कुछ सार प्रतीत होता है। अब प्रश्न यह होता है कि फिर उक्त सिद्धान्तों में कौन सा सिद्धान्त ऐसा है कि जिसमें साक्षात या परम्परया सभी सिद्धान्तों का सामंजस्य हो? क्योंकि द्वैत-अद्वैत अत्यन्त विरोध सिद्धान्तों का परस्पर सामंजस्य होना मानों तेज-तिमिर या दहन-तुहिन का ऐक्य सम्पादन हैं। इस विषय में समन्वय-साम्राज्य-पथानुसारी शास्त्र-तात्पर्य-परिशीलन संस्कृत प्रेक्षावानों का कहना है कि “वेदैकसमधिगम्य” तत्त्व में आस्था रखने वाले सिद्धान्तों का सामंजस्य तो सिद्ध ही है। विशेष विचार से तो अदृष्ट कुछ न मानकर एकमात्र दृष्ट पदार्थ को मानने वाले बाह्म चार्वाक का भी दृष्ट को परमार्थसत्तया कुछ न मानकर केवल अदृश्य, अव्यक्त, अव्यहार्य परमार्थ तत्त्व को ही मानने वाले अद्वैतियों से परम्परया अविरोध हो सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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