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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
सर्वसिद्धान्त-समन्वय
पयोव्रती दधि नहीं भक्षण करता, दधिव्रती पय से बचता है; गोरसव्रती दोनों ही का भक्षण करता है। इस तरह व्यवहारपार्थक्य से भेद होता है। ‘तदघीनस्थितिप्रवृत्तिमत्वेन’ अर्थात सुवर्णादि कारण के अधीन ही कार्य की स्थिति एवं प्रवृत्ति होती है। अतः अभेद भी है। ठीक ऐसे ही चित् भोक्तृवर्ग, अचित् भोग्यवर्ग परमतत्त्व के अधीन ही स्थिति प्रवृत्ति वाले हैं। अतः परमतत्त्व से अभिन्न हैं; व्यवहार में विरुद्ध धर्म देखने में आता है अतः भिन्न भी हैं। इस वास्ते चिदचिद्भिन्नाऽभिन्न परमतत्त्व ही में शास्त्र का अभिप्राय है। शुद्धाद्वैतवादी इतने पर भी सन्तुष्ट नहीं होते! उनका कहना है कि परमतत्त्व से पृथक चित्-अचित् किसी तरह से हैं, तभी आप ‘तदधीनस्थितिप्रवृत्तिमत्वेन’ इस उपाधि से अभेद मानते हैं। वस्तुतः विशिष्टाऽद्वैतवादियों के समान आपके यहाँ भी अद्वैतवादिनी श्रुति सम्यक स्वार्थपर्यवसायिनी नहीं होती। परमात्मा से व्यतिरिक्त तत्त्व मानने से तत्त्व में परिच्छेद होने से “निरतिशय पूर्णता” भी बाधित होगी। इस वास्ते विशिष्टत्व-भिन्नत्वादि-शून्य शुद्धसच्चिनादनन्द परमात्मा ही श्रुति-सर्वस्व है। इस पक्ष में भेदवादिनी तथा अभेदवादिनी दोनों प्रकार की श्रुतियाँ अबाधित रहेंगी। भेदाऽभेद का परस्पर विरोध होने से एकत्र सामञ्जस्य होना ही असम्भव है। इस पक्ष में “एकोऽहं बहु स्याम्” इत्यादि श्रुतिशतसिद्ध एकतत्त्व ही का बहुभवन अघटित-घटना-पटीयान् आत्मयोग की महिमा से सम्यक् सूपपन्न हो जायगा। परमेश्वर समस्त विरुद्ध धर्मों का आश्रय है। अतः अणोरणीयस्त्व, महतोमहीयस्त्व, सर्वधारकत्व, सर्वसंसर्गराहित्य, स्वाभिन्न सुख-दुःख-मोहात्मक-प्रपंचनिर्मातृत्व, अविकृतपरिणामित्व भी होने में कोई आपत्ति नहीं। विचित्रस्वरूपा भिन्न आत्मवैभव ही सर्वसमाधान में पर्याप्त है; सदंशाश्रित मायाशक्ति, चिदंशाश्रित संविच्छक्ति, आनन्दाश्रित आह्लादिनी शक्ति के सम्बन्ध से सदादि अंशों का ही प्रकृति-प्राकृत तथा पक्षत्रयाऽनुमोदित अणुपरिमाणचित्कणस्वरूप भोक्तृवर्ग एवं ज्ञान आनन्द के प्राधान्याऽप्राधान्य से अन्तर्यामी श्रीकृष्ण आदि रूप में अविकृत परिणाम निर्दुष्ट होने से सर्वव्यवहार भी समञ्जस है। इस पक्ष में कारणांश को लेकर अद्वैवादिनी, सप्रपंच को लेकर द्वैतवादिनी श्रुतियाँ भी ठीक लग जायँगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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