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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
सर्वसिद्धान्त-समन्वय
अस्तु, उत्तरमीमांसा-भाष्यकारों का अति संक्षिप्त प्रधान विषय दिखलाते हैं- द्वैतवादी प्रकृति, पुरुष तथा परमेश्वर इत्यादि श्रुतिसूत्र-प्रपिपाद्य विषय मानते हैं। अद्वैतप्रतिपादक श्रुतिसूत्र प्रथम तो हैं ही नहीं, यदि हैं तो भी वे गौणार्थक हैं। अर्थात उनका स्वार्थ में कुछ तात्पर्य नहीं है। ध्यान में रखना चाहिये कि पूर्वमीमांसक से लेकर उत्तरोत्तर सभी सिद्धान्तिय का “प्रमाणं परमं श्रुतिः” ऐसा उद्घोष है। विशिष्टाद्वैतवादियों का कहना है कि अद्वैत नहीं है, यह कहना केवल धृष्टता है। जबकि अद्वैतवादिनी श्रुति विद्यमान हैं, तब उनका तात्पर्य अद्वैत में नहीं है यह भी कैसे कहा जा सकता है? अतः चित्-अचित् उभयविशेषण-विशिष्ट परमतत्त्व अद्वितीय है और वही जगत का निमित्त तथा उपादान दोनों ही कारण है, केवल निमित्त ही नहीं। “नीलमुत्पलम्” तथा शरीर-शरीरी के समान विशेषण-विशेष्य का पारस्परिक भेद होते हुए भी अभेद या अद्वैत सूपपन्न है। इस पक्ष में भेदवादिनी तथा अभेदवादिनी दोनों ही प्रकार की श्रुतियों का सामंजस्य हो जायगा। इस सिद्धान्त के अनन्तर द्वैताऽद्वैतवादी कहते हैं कि विशिष्टाऽद्वैत भी ठीक नहीं है; क्योंकि इस पक्ष में विशेषण-विशेष्य का वस्तुतः भेद ही मानते हो तब अद्वैत कैसे हो सकता है? विशिष्टाऽद्वैत केवल प्रयोग-चातुर्य है। अतः इस पक्ष में भी अद्वैतवादिनी श्रुति निरालम्बन ही रह जाती है। इस वास्ते चिदचिद्भिन्नाऽभिन्न परमतत्त्व जगत का उपादान तथा निमित्त कारण है और वही श्रुतिसूत्र के तात्पर्य का विषय है। जैसे “सुवर्ण कुण्डल” ऐसे प्रयोग तथा विचार से भी सुवर्ण स्वरूप ही कुण्डल है। इस वास्ते सुवर्ण कुण्डल का अभेद एवं सुवर्ण जानने पर भी “किमिदम्” ऐसी कुण्डलविषयिणी जिज्ञासा होती है, इसीलिये दोनों का भेद भी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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