भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
व्रज-भूमि
किन्हीं महानुभावों के सिद्धान्त में यह प्रकट वृन्दावन ही अक्षर ब्रह्मव्यापी वैकुण्ठ है। परन्तु उसका वह स्वरूप अभावितान्तःकरण पुरुष को उपलब्ध नहीं होता है। अद्वैतसिद्धान्त में समस्त प्रपंच ही ब्रह्मस्वरूप है परन्तु शास्त्राचार्योपदेशजन्य संस्कारों से संस्कृतान्तःकरण पुरुषधौरेय को ही वह उपलब्ध होता है। इसीलिये अद्वैतसिद्धान्त-परिनिष्ठित प्रबोधानन्द सरस्वती तदनुसार ही श्रीवृन्दावन को सच्चिदानन्दमय बतलाते हुए लिखते हैं- “यत्र प्रविष्टः सकलोऽपि जन्तुः आनन्दसच्चिद्घनतामुपैति।” “जिस वृन्दावन-धाम में प्रविष्ट होते ही कीट-पतंगादि भी आनन्द सच्चिद्घनस्वरूप हो जाते हैं”, परन्तु तादृशी प्रतीति तब तक नहीं होती जब तक प्राकृत-संसर्ग का बिल्कुल अभाव नहीं होता। यद्यपि जीव स्वभाव से ही “चेतन अमल सहज सुखराशी” है, परन्तु आविद्यिक अनात्म संसर्ग से अनेकानेक अनर्थ-परिप्लुत प्रतिभासित होते हैं। अविद्या का विद्या द्वारा अपनयन होने पर उनका स्वाभाविक स्वरूप व्यक्त होता है। अत: कुछ लोग कहते हैं कि भगवान की अभिव्यक्ति का स्थल ही वृन्दावन है। भगवदाकार से आकारित वृत्ति पर भगवत्तत्त्व का प्राकट्य होता है उसे भी वृन्दावन कहते हैं। इस तरह साभास अव्याकृत एवं साभास चरमावृत्ति को भी वृन्दावन कहते हैं। इसीलिये जो महानुभाव वृन्दावन के उपासक होते हुए भी प्रसिद्ध वृन्दावन में प्रारब्धवश नहीं रह पाते, वे भी व्यापी वैकुण्ठ, कारण-तत्त्व-स्वरूप ब्रह्म के व्यापक होने से, तत्त्वस्वरूप वृन्दावन का प्राकट्य शक्ति-बल से कहीं भी रहकर सम्पादन करते हैं। भावुकों की दृष्टि में नित्य-निकुंज श्रीवृन्दावन से भी अन्तरंग समझा जाता है। नित्य-निकुंज में वृषभानुनन्दिनीस्वरूप महाभाव-परिवेष्टित श्रृंगार-स्वरूप श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द नित्य ही रसाक्रान्त रहते हैं। यहाँ प्रिया-प्रियतम का सार्वदिक् सर्वांगीण सम्प्रयोग का भान भी सर्वदा ही रहता है। जैसे कि सन्निपातज्वर से आक्रान्त पुरुष जिस समय शीतल मधुर जल का पान करता है ठीक उसी समय से पूर्ण तीव्र पिपासा का भी अनुभव करता है, वैसे ही नित्य निकुंज-धाम में जिस समय प्रिया-प्रियतम पारस्परिक परिरम्भण-जन्य रस में निमग्न होते हैं, उसी काल में तीव्रातितीव्र वियोग-जन्य ताप का भी अनुभव करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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