भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
व्रज-भूमि
भावुकों का कहना है कि अनन्तकोटि ब्रह्माण्डान्तर्गत सौख्यबिन्दुओं का परम उद्गम स्थान जो अनन्त सौख्यसुधासिन्धु है, उसका मन्थन करने पर सार से भी सारभूत नवनीत-स्थानीय जो तत्त्व हो, उसका भी पुनः सहस्रधा-कोटिधा मन्थन करने पर जो परम दिव्य-तत्त्व निःसृत हो वही वृन्दावनधाम का स्वरूप है। कारणरूप जो अक्षर-ब्रह्म है, वही व्यापी वैकुण्ठ वृन्दावन है। कार्य-कारणातीत वेदान्त के परम-तात्पर्य के विषयीभूत परमतत्त्व श्रीकृष्ण के प्राकट्य का स्थल कारणात्मा अक्षर ही है। “पादोऽस्य विश्वाभूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि”, “विष्टभयाहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्” इत्यादि श्रुतिस्मृति के अनुसार माया विशिष्ट कारण ब्रह्म एकपाद है। उसके ऊपर त्रिपाद्विभूति अमृत है। जो महानुभाव वेदान्त-वेद्य, कार्य-कारणातीत परमतत्त्व को ही वृन्दावन मानते हैं, उनके सिद्धान्त में वहाँ का निवासी कृष्ण-तत्त्व अवैदिक ही होगा। इतना ही कहना पर्याप्त है, क्योंकि एक ही में आश्रयाश्रयित्व असम्भव है। “अव्याकृतमनन्ताख्यमासनं यदधिष्ठितम्।” इस उक्ति के अनुसार भी अनन्तसंज्ञक अव्याकृत ही भगवान का आसन है। उन्हीं का नाम शेष भी है। “शिष्यतेअवशिष्यते इति शेषः” अर्थात जो अवशिष्ट रहे वही शेष कहा जाता है। कार्य के प्रलयानन्तर कारण ही शेष रहता है। उसका कोई कारणान्तर नहीं है जिसमें उसका प्रलय हो। कारण सप्रपंच है। निष्प्रपंच ब्रह्म का वही निवास स्थल है। “ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाऽहम्” इस भगवदुक्ति के अनुसार सगुण कारण-ब्रह्म की, एकपादस्थानीय की प्रतिष्ठा “त्रिपादूर्ध्वमुदैत्” ऊर्ध्व अर्थात कार्य-कारणानन्तर्भूत ब्रह्म परमात्मा ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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