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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
शिवलिंगोपासना-रहस्य
ब्रह्मा जी ने कहा कि- फिर सब देवताओं एवं मुनियों ने जब आराधना की, तब भगवान और गिरिजा प्रसन्न हुई और गिरिजा में शिव की प्रतिष्ठा हुई। क्या साधारण लिंग का गिरकर अग्निमय होकर सर्व लोकों में घूमना बन सकता है? और विष्णु, राम, कृष्ण तथा सभी देव, मुनि क्या केवल साधारण लिंग-योनि की ही पूजा करते थे? यदि यही बात थी, तो कृष्ण की उपमन्यु के यहाँ जाकर दीक्षापूर्वक घोर तपस्या करने की क्या आवश्यकता थी? कुछ लोग कथा में आये हुए उक्त शिवलिंग को केवल ब्रह्माण्ड कहते हैं, उसी को हाथ में लिये हुए भगवान लीलया दारुक वन में गये थे, वहीं मुनियों के शाप से उनके हाथ से लिंग गिर पड़ा। अत एव वहाँ उसका ‘गिरना’ कहा गया है, ‘कटना’ नहीं। उस ज्योर्तिलिंग ब्राह्म तेज का आधार पंचतत्त्वात्मिका प्रकृति ही योनि है। अतः पार्वती ने योनिरूप से उस लिंग को धारण किया अर्थात पंचतत्त्वात्मिका प्रकृति बनकर उन्होंने ब्रह्माण्ड को धारण किया। अग्निमय सर्वदाहक लिंग को योनि-प्राकृत चर्मखण्ड मूत्रेन्द्रिय- में कौन धारण कर सकता था?"बाणरूपा श्रुता लोके पार्वती शिववल्लभा।"
अर्थात पार्वती के बिना कोई इसे नहीं धारण कर सकता, उनके धारण से वह शीघ्र ही शान्त हो जायगा। इत्यादि मन्त्रों में योनि का अर्थ मूत्रेन्द्रिय ही है, यह कहना अज्ञता ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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