भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
अद्वय ज्ञान को ही तत्त्वविद् लोग तत्त्व कहते हैं, उसी को ब्रह्म, परमात्मा एवं भगवान कहा जाता है। कुछ लोगों का कहना है कि यहाँ ब्रह्म से परमात्मा में और उससे भगवान में उत्कर्ष विवक्षित है। यदुकुलभूषण श्रीकृष्ण की सभा में बैठे हुए यादवों ने आकाश मार्ग से आते हुए देवर्षि श्रीनारदजी को प्रथम केवल तेजःपुंज ही समझा। कुछ समीप आने पर कोई देहधारी समझा और अधिक समीप होने पर पुरुष एवं सर्वथा सान्निध्य में श्रीनारद समझा।
ठीक उसी तरह तत्त्व से अति दूर स्थित अधिकारी को प्रथम केवल चिन्मात्र ब्रह्म का बोध होता है, कुछ समीप्य होने पर योगियों को कतिपय गुणविशिष्ट परमात्मा, सर्वथा सान्निध्य होने पर अनन्त कल्याण-गुणगण-विशिष्ट भगवान के रूप में तत्त्व का उपलम्भ होता है। इन्हीं लोगों में ही मनमानी कल्पना करने वाले कुछ लोग श्रीकृष्ण को आदित्य स्थानीय और ब्रह्म को प्रकाश स्थानीय मानते हैं। कुछ श्रीवृषभानुकिशोरी ने नखमणि-प्रकाश या नूपुर प्रकाश को ही औपनिषद् परब्रह्म कहते हैं। परन्तु वैदिकों की दृष्टि में तो वेदों का महान तात्पर्य ब्रह्म ही में है और वही सब तरह से सर्वोत्कृष्ट है। संकोच का कारण न होने से वृद्ध्यर्थक ‘बृहि’ धानु से निष्पन्न ‘ब्रह्म’ शब्द का अर्थ निरतिशय बृहत्तम तत्त्व होता है। जो देशकाल वस्तु परिच्छेद वाला हो वह तो परिच्छिन्न होने के कारण क्षुद्र ही है, निरतिशय बृहत् नहीं। यदि जड़ हो तो भी दृश्य होने से अल्प और मर्त्य होगा। अतः अनन्त स्वप्रकास सदानन्द तत्त्व ही ‘ब्रह्म’ पर का अर्थ होता है और वही भूमा अमृत है। उससे भिन्न सभी को अल्प और मर्त्य ही समझना चाहिये। फिर अनन्त पद के साथ पठित ‘ब्रह्म’ शब्द का तो सुतरां यही अर्थ है। उसमें अतिशयता की कल्पना निर्मूल है। किसी राजा ने ऐसी कहानी सुनना चाहा कि जिसका अन्त ही न हो। एक चतुर ने सुनाना प्रारम्भ किया- राजन! एक वृक्ष था, उसकी अनन्त शाखाएँ थीं, उन शाखाओं में अनन्त उपशाखाएँ थीं, उपशाखाओं में भी अनन्त पल्लव थे और उन पर अनन्त पक्षी बैठे थे। कुछ काल में एक पक्षी उड़ा ‘फुर्र’। राजा ने कहा- आगे कहिये, इस पर उसने का ‘दूसरा उड़ा फुर्र’। तब राजा ने कहा और आगे कहिये, तब उस चतुर ने कहा कि पहले पक्षियों का उड़ना पूरा हो तब आगे बढ़ूँ। यहाँ एक-एक पक्षी का उड़ना समाप्त ही नहीं हो सकता। इसी तरह कल्पनाओं का अन्त ही नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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