भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
अंश और अंशी का मुख्य सम्बन्ध होता है। जैसे पृथ्वी का अंश लोष्ठ या पाषाण आदि पृथ्वी की ओर आकर्षित होता है, वैसे ही परमात्मा के अंश जीवों का भी उस ओर आकर्षण होता है। जिनके मत में चन्द्र का शतांश बृहस्पति नक्षत्र है, इस प्रकार का केवल औपचारिक अंशांशिभाव है, उनका आकर्षण भले ही न हो, पर यहाँ तो श्रीकृष्ण-प्रेयसीगण पंचकोश कंचुक से निरावरण होकर व्यवधानशून्य प्रियतम सम्मिलन के लिये ही आशय से अभ्युत्थित हुईं। उन्होंने यह समझा कि जब प्रियतम-व्यवधायक आनन्दोद्रेकजन्य रोमांच की उद्गति भी असह्य है, तब पंचकोश कंचुक का व्यवधान कैसे सह्य हो सकता है? इस तरह प्रत्यक् चैतन्य से अभिन्न परब्रह्म के स्वरूप का साक्षात्कार होने पर ही अज्ञान एवं तत्कार्यरूप व्यवधायक आवरण ही आत्यन्तिक निवृत्ति होती है। निरतिशय परप्रेमास्पद प्रत्यगात्मा के साथ एकता होने से तत्पदार्थ परमात्मा में भी निरतिशय निरुपाधिक परप्रेमास्पदता व्यक्त होती है और साक्षात अपरोक्षता परमानन्दरूपता भी स्फुट होती है। इसके विपरीत परमात्मा को प्रत्यक् भिन्न पराक् बहिरंग मानने से स्वयं प्रकाशता, परप्रेमास्पदता तथा परमानन्दास्पदता किसी तरह सिद्ध नहीं हो सकती। अतः साधक को अपने भगवान की पूर्णता, परमानन्दता आदि सिद्धि के लिये स्वात्मसमर्पण करना ही पड़ता है। अनात्मज्ञ प्रत्यगात्मा से भिन्न अन्यान्य समस्त प्रपंचों का भगवान में समर्पण करता है, परन्तु प्रत्यगात्मा का अस्तित्व पृथक रखता है। आत्मज्ञ प्रियतम के सब प्रकार के परिच्छेद से शून्य पूर्णता की सिद्धि के लिये प्रत्यगात्मा को भी भगवान में समर्पित कर देता है। जैसे घटाकाश अपने आपको महाकाश में, किंवा तरंग अपने आपको महासमुद्र में समर्पण करता है, वैसे ही जीवात्मा अपने आपको भगवान में समर्पण कर देता है। यही “मामेकं शरणं व्रज” आदि भगवदादेश का पालन है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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