भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
जीव जब अपने को नित्य, शुद्ध, बुद्ध, निरुपमसुख-संविद्रूप न समझकर कर्ता, भोक्ता समझने लगता है, तब उसको उपाधिसंसर्ग से तद्धर्मारोप के कारण प्रतिबिम्ब कहने लगते हैं। उपाधिसंसर्गातीत होने पर शुद्धबिम्बरूप ही हो जाता है। जैसे प्रतिबिम्ब की अपेक्षा ही से गगनस्थ सूर्य में बिम्ब का व्यवहार होता है। प्रतिबिम्ब की अपेक्षा न करने से बिम्बता-प्रतिबिम्बतारूप धर्मों से रहित शुद्ध सूर्य का व्यवहार होता है, वैसे ही प्रतिबिम्बात्मक जीव की अपेक्षा विशुद्ध चिदात्मक परमतत्त्व में ही परमेश्वरत्व का व्यवहार होता है। जीवभाव की अपेक्षा न करने से जीवत्व-परमेश्वरत्व धर्म रहित निर्विकार शुद्ध परमात्मा का ही व्यवहार होता है। भगवती श्रुति ने परमात्मा को ही समस्त प्रपंच का उपादान तथा निमित्त कारण कहा है। इसी से एक विज्ञान से सर्वविज्ञान की प्रतिज्ञा सिद्ध की गयी है। परन्तु जब परमतत्त्व असंग, निरवयव, निष्कल एवं सुख-दुःखमोहातीत है, तब उसमें सकल सुख-दुःख मोहात्मक प्रपंच की स्थिति कैसे हो सकती है? प्रपंचातीत परमतत्त्व के निरवयव एवं असंग होने से ही कार्यकारण भाव की भी संगति नहीं होती। निरवयव तथा निर्गुण निष्क्रिय होने के कारण संयोग-सम्बन्ध एवं समवाय सम्बन्ध भी प्रपंच के साथ नहीं हो सकता। अतः केवल दर्पण में प्रतिबिम्ब एवं रज्जु में सर्प की तरह ब्रह्म में प्रपंच का आध्यासिक सम्बन्ध ही कहा जा सकता है। ब्रह्म में आध्यासिक सम्बन्ध मानने से प्रपंच का जब मिथ्यात्व ही सिद्ध होता है, तो ऐसी स्थिति में एक के विज्ञान में सर्व के विज्ञान का कैसे समर्थन किया जा सकता है? जैसे रज्जुज्ञान में सर्प का ‘बाध’ कहा जाता है, ‘विज्ञान’ नहीं, वैसे ही ब्रह्म के विज्ञान में सर्वपद से विवक्षित प्रपंच बाधित या मिथ्या हो जाता है। अतः जिस ब्रह्म का विज्ञान होने में प्रपंच का बाध होना निश्चित है, उस ब्रह्म के ज्ञान में सर्व प्रपंच का विज्ञान कैसे कहा जा सकता है? तथापि यहाँ श्रुति का आशय गम्भीर है। जैसे ‘शत्रु-गृह’ का भोजन करूँ या न करूँ? बालक के ऐसे प्रश्न पर जननी कहती है- ‘विषं भुङ्क्ष्व’। इस वाक्य का उत्तान अर्थ यही है कि “विष खा” परन्तु क्या पुत्रवत्सला जननी अपने शिशु को विष भोजन का आदेश दे सकती है? यदि नही, तो यही कहना होगा कि इस वाक्य का अभिप्राय शत्रुगृह भोजन निवृत्ति में है- “शत्रुगृहभोजनाद्वरं विषभोजनं, अतो मा भुङ्क्ष्वेति।” ठीक वैसे ही भगवती श्रुति का परमात्म-विज्ञान से जड़ दुःखमय प्रपंच के निरर्थक विज्ञान के प्रतिपादन में तात्पर्य नहीं हो सकता, किन्तु मधुरतम भगवान के ज्ञान से पहले यद्यपि सर्वपद वाच्य प्रपंच के बोध में कुछ पुरुषार्थ बुद्धि होती है तथापि परमानन्दस्वरूप भगवान का बोध होने पर तो नीरस प्रपंच का बोध अत्यन्त निरर्थक हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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