भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
जैसे पूर्णिमा के किसी अवस्था विशेष विशिष्ट चन्द्रमा पर ही राहु का प्राकट्य होता है, वैसे ही निर्वृत्तिक निरुद्ध मन पर ही ब्रह्मस्वरूप का प्राकट्य होता है। “असत्ये वर्त्मनि स्थित्वा ततः सत्यं समीहते।” असत्य काल्पनिक मार्ग पर स्थित होकर सत्यवस्तु की प्राप्ति का प्रयत्न किया जाता है। अप्राकृत भगवान की मंगलमयी मूर्ति को प्राकृत कमल महेन्द्र नीलमणि प्रभूति उपमानों से उपमित किया जाता है। क्या कोई भी आस्मिक सर्वांश में भगवान में इन उपमानों को मान सकता है? एक के विज्ञान में सर्व विज्ञान की प्रतिज्ञा का समर्थन करने के लिये श्रुति ने यह दृष्टान्त दिया है कि जैसे एक मिट्टी के विज्ञान में समस्त मृण्मय पदार्थ का “यह सब मिट्टी ही है” इस प्रकार विज्ञान हो जाता है, वैसे ही एक परमात्मा के विज्ञान से समस्त परमात्म कार्य का विज्ञान हो जाता है। परन्तु यहाँ भी तो मृत्तिका सावयव एवं परिणामिनी है, तो फिर निरवयव कूटस्थ अपरिणामी भगवान का प्रपंच-रूप में परिणाम कैसे सम्भव है? और परमात्मा के विज्ञान में समस्त प्रपंच का विज्ञान भी होना कैसे सम्भव है? यह बात नहीं है, यहाँ तो केवल जैसे कारण से भिन्न कार्य की सत्ता नहीं; कारण की ही सत्ता से कार्य में सत्ता और स्फूर्तिमत्ता प्रतीत होती है, वैसे ही परमात्मा से भिन्न प्रपंच की सत्ता नहीं; एक परमात्मा की ही सत्ता और स्फूर्ति से प्रपंच में सत्ता और स्फूर्ति की प्रतीति होती है। इतने ही अंश में दृष्टान्त है। इसी प्रकार घट से ही महाकाश में देश की कल्पना और उससे ही महाकाश में घटाकाश-व्यवहार और घट के गमन में घटाकाश के गमन की प्रतीति होती है। वस्तुतः न तो महाकाश से भिन्न घटाकाश है और न उसका गमन ही होता है, वैसे ही अनन्त अखण्ड शुद्ध भगवान में उपाधियोग से ही भेद और गति, उत्क्रान्ति आदि की प्रतीति होती है, वस्तुतः कुछ नहीं है। उपाधि-विरहित दश में उपाधि के जाने से वहाँ नवीन जीवभाव की कल्पना हो जाती है। यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि देश की कल्पना भी तो उपाधि के ही अधीन है। इसके अतिरिक्त ऐसी कल्पना से अधिष्ठिान में तो कोई हानि ही नहीं है। यों तो समस्त प्रपंच ही उसी में कल्पित है; परन्तु इससे क्या वह बद्ध समझा जाता है? क्या कल्पित जल से मरुभूमि आद्र्दा होती है? जब निवयव निष्प्रदेश निष्कल में काल्पनिक उपधि द्वारा ही काल्पनिक प्रदेश का व्यवहार होता है, तब तत्त्वतः प्रदेश या उसके बन्ध और मोक्ष की कल्पना तात्त्विक कैसी? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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