भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
किसी भी वस्तु को जानने के लिये अन्य विषयों से चित्त को व्यावर्तित करने और तत्परतापूर्वक परिचय करने की आवश्यकता होती है। परन्तु यहाँ तो श्रवण-मननादिजन्य स्वरूप के संसकार ही परिचय, प्रयत्न के स्थान में अपेक्षित हैं, क्योंकि जैसे छाया के पीछे चलेन से छाया का ग्रहण नहीं हो सकता, वैसे ही प्रयत्न से शुद्ध वस्तु की उपलब्धि नहीं हो सकती- “कारकव्यवहारे हि शुद्धं वस्तु न वीक्ष्यते।” निर्व्यापार होने पर ही वस्तुबोध हो सकता है। परन्तु केवल निर्व्यापारता योगियों को भी होती है, उन्हें अद्वैत ब्रह्म का आपरोक्ष्य फिर भी नहीं होता। इसका कारण यह है कि स्वरूप-परिचयानुकूल श्रवणादि द्वारा संस्कार वहाँ सम्पादित नहीं किये गये हैं। आत्मा पर प्राथमिक आवरण अनिर्वचनीय अज्ञान, और द्वितीय विक्षेपरूप द्वैत, तृतीय अर्धनिद्रापूर्वक स्वप्न और चतुर्थ पूर्ण निद्रा या सुषुप्ति है। मेघाच्छन्न भाद्रपद अमावास्या की रात्रि की तरह सुषुप्ति में आत्मा का अत्यन्त अप्रकाश रहता है। मेघ रहित रात्रि के समान स्वप्न में किंचित्प्रकाश होता है। चान्द्रमसी रात्रि की तरह जाग्रत में पर्याप्त प्रकाश होता है। मेघाच्छन्न दिवस की तरह समाधि में आत्मा का प्रकाश होता है। निरावरण सूर्य की तरह तत्त्व साक्षात्कार में आत्मा का प्रकाश होता है। निरावरण ब्रह्म-स्वरूप साक्षात्कार के लिये देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकारादि का अत्यन्त निरोध और वेदान्ताभ्यासजन्य संस्कार इन दोनों की आवश्यकता है। जैसे “गोसदृशो गवयः” इत्याकारक वाक्यजन्य दृढ़तर संस्कार वाले पुरुष को ‘नेत्र’ और ‘गवय’ का सन्निकर्ष होते ही “अयं गवयः” ऐसा बोध हो जाता है, वहाँ विचार की आवश्यकता नहीं होती; और गवय का नेत्रों से सम्बन्ध होने पर भी “यह गवय है” ऐसा बोध नहीं होता, जब तक कि “गौ के सदृश्य गवय होता है” ऐसा ज्ञान नहीं होता। अतः जहाँ सन्निकर्ष कोने पर भी “गोसृदशो गवयः” इस वाक्य के बिना “अय गवयः” इत्याकारक साक्षात्कार में विलम्ब हो, वहाँ “यह गवय है” इस ज्ञान में वाक्य ही हेतु है, इन्द्रिय-सन्निकर्ष सहकारी मात्र है, एवं जहाँ “गोसदृशो गवयः” इस वाक्य के संसकार होने पर भी नेत्र-सन्निकर्ष बिना साक्षात्कार में विलम्ब हो, वहाँ सन्निकर्ष ही मुख्य हेतु है और वाक्य सहकारी है। ठीक इसी तरह योगियों को निरोध समाधि होने पर वेदान्ताभयासजन्य संस्कार बिना साक्षात्कार में विलम्ब है। अतः वहा ब्रह्मसाक्षात्कार में वेदान्त-वाक्य ही मुख कारण है, निरोध सहकारी है। जहाँ वेदान्ताभ्यास होने पर भी निरोध बिना साक्षात्कार में विलम्ब है, वहाँ निरोध को ही मुख्य हेतुता है, वाक्य सहकारी है। इसी अभिप्राय से आचार्यों ने कहीं वेदान्तों को, कहीं संस्कृत निरुद्ध मन को, ब्रह्म-साक्षात्कार में हेतु माना है और कहीं महावाक्य को ही मुख्य हेतु कहा है। इससे सिद्ध होता है कि वेदान्ताभ्यासजन्य संस्कार से युक्त निरुद्ध अन्तःकरण से निरावरण ब्रह्म का साक्षात होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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