भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
इसी तरह जब निद्रा भंग होती है, तब पहले तामसी निद्रा दूर होती है। फिर कुछ क्षण के अनन्तर निद्रारूप आवरण से रहित मुकुलित अन्तःकरण कमल, शनैः शनैः पुनः विकसित होकर, सम्यक रूप में द्वैत का दर्शन करने लगता है। इस तरह से मनोव्यापारस्वरूप प्रयत्न से द्वैत व्यक्त होता है। निर्व्यापाररूप विश्रान्ति में स्वाभाविक अद्वैत व्यक्त होता है। जो वस्तु प्रयत्न से, परिश्रम से सिद्ध की जाती है वह कृत्रिम, अनित्य तथा असत्य होती है और जो बिना व्यापार, बिना परिश्रम, नित्यसिद्ध हो, वही स्वाभासिक एवं सत्य है। मूल श्रुति भी परिश्रमरहित निव्र्यापार दशा का वर्णन अद्वैतरूप से ही करती है “सदेव सौम्य इदमग्र आसीत्”, “एकमेवाद्वितीयम्।” और ईक्षण, कामना, तप तथा संकल्परूप परिश्रम से बहुभवन का वर्णन करती है- “तदैक्षत एकोऽहम् बहु स्याम्”, “सोऽकामयत स तपस्तप्त्वा इदमसृजत्” इत्यादि। जागर के अन्त एवं सुषुप्ति के पूर्व में तथा सुषुप्ति के अन्त एवं जागर के पूर्व में कुछ क्षण निष्प्रतिबिम्ब दर्पण की तरह शुद्ध निर्दृश्य चिद्रूप अखण्ड भान का दर्शन होता है। परन्तु अति सूक्ष्म होने के कारण सर्वसाधारण की समझ में नहीं आता। जैसे हम सदा ही उत्तराभिमुख होकर नक्षत्र-राशियों पर दृष्टि डालने पर ध्रुव का दर्शन करते हैं, तथापि “अयं ध्रुवः” इत्याकारक स्पष्ट विवेकपूर्वक ध्रुव को नहीं पहचानते; कुछ लोगों के न पहचानने में तो लक्षण का अज्ञान ही हेतु है और कुछ लोगों को “अमुक-अमुक नक्षत्रों के सन्निधान में तथा उत्तर दिशा में सदा अचल रूप से स्थिर रहने वाले नक्षत्र का नाम ध्रुव है” इस प्रकार से लक्षण का ज्ञान है। तथापि वे लक्षण को लक्ष्य में समन्वित करके ध्रुव को पहचानने के लिये तत्पर नहीं होते, इसीलिये उन्हें प्रतिदिन ध्रुव को देखने पर भी उसकी पहचान नहीं होती। अतः लक्षणज्ञान एवं परिचय के लिये, अन्य दृश्य की ओर से दृष्टि व्यावर्तनपूर्वक तत्परता से ही प्रयत्न करने पर स्पष्ट रूपेण ध्रुव का परिचयपूर्वक दर्शन होता है। ठीक इसी तरह सदा ही सुषुप्ति एवं जागर के अन्त में यद्यपि सभी को निर्दृश्य शुद्ध दृक् रूप स्वयं प्रकाश अखण्ड भान का दर्शन होता है, तथापि परिचयपूर्वक स्पष्ट साक्षात्कार नहीं होता। सदा स्वप्र काशरूप से भासमान में भी जो “नास्ति (नहीं है) और “न भाति” (नहीं प्रतीत होता है) इत्याकारक व्यवहार-योग्यता है, वही आवरण-शक्ति का विलक्षण चमत्कार है; और स्वप्रकाश अनन्त अद्वैत में जड़ परिच्छिन्न द्वैत प्रपंच का भान करा देना, यही विक्षेप शक्ति का विलक्षण चमत्कार है। इसी की निवृत्ति के लिये आचार्य-परम्परा से वेदान्तों का श्रवण तथा मनन करके अद्वितीय परमात्मा के लक्षणों का संस्कर अन्तःकरण में स्थिर करना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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