भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
जैसे हम सबके लिये कृच्छादिरूप तप है, वैसे ही परमात्मा के लिये द्वैत ज्ञान ही तप है। यह ठीक ही है, क्योंकि जो बात बहिर्मुखों के लिये नगण्य है वही अन्तर्मुखों को और ही प्रकार से अनुभूत होती है। देखते हैं कि और अंगों में दण्ड के आघात से भी उतना कष्ट नहीं होता, जितना नेत्र में ऊर्णा तन्तु के निक्षेप से होता है। जिन दोषों एवं दृश्य प्रतीतियों से बहिर्मुखों को कुछ भी सन्ताप नहीं होता, उन्हीं से अन्तर्मुख योगियों को बहुत विक्षेप होता है। तो फिर योगेश्वर भगवान के लिये दृश्य दर्शन कृच्छादिकों की तरह घोर तप हो तो इसमें क्या आश्चर्य है। कठोरों के लिये जो कुछ नहीं, वही सुकुमारों के लिये बहुत है, इसीलिये आचार्यों ने कहा है कि-
अर्थात भगवान के निःश्वास से ही वेदों का प्रादुर्भाव होता है, वीक्षण से ही पंचभूतों की सृष्टि होती है, स्मित (मन्दहास) से ही सकल चराचर जगत बन जाता है और प्रभु की सुषुप्ति में ही समस्त प्रपंच का प्रलय हो जाता है। प्रभु के वीक्षण एवं मन्दहास (मुस्कुराहट) से कितने अद्भुत अनन्तकोटि ब्रह्माण्डों का प्राकट्य होता है। प्रभु के वीक्षणादि में जैसा अद्भुत प्रभाव है, वैसे ही प्रभु की सुकुमारता भी अद्भुत है। अतः वीक्षण ही में उन्हें इतना श्रम तथा कष्ट होता है कि वही तप हो जाता है। बस, वीक्षण और मन्दहास में ही परिश्रान्त होकर वे विश्रान्ति के लिये सुपुप्ति में पहुँच जाते हैं। वीक्षण करके थोड़ा करके थोड़ा सा मुस्कुरा देना और सो जाना, बस इतना ही उनका कार्य है। अब सहृदय महापुरुष कल्पना करें कि अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायक श्रीभगवान को भी जब वीक्षण और मुस्कुराहट के अनन्तर ही विश्रान्ति के लिये सुषुप्ति की आवश्यकता है तब फिर द्वैत में सुख है या अद्वैत में? द्वैत में चाहे जहाँ भी जितना भी जो कुछ भी सुख है, वह निष्प्रपंच अद्वैत ब्रह्मसुख की अपेक्षा न्यून ही नहीं अपितु दुःखरूप है। सर्व सौख्य-सम्पन्न द्वैतदर्शन से उद्विग्न होकर अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायक भगवान विश्रान्ति के लिये अद्भुत सुख का समाश्रयण करते हैं, फिर उनके भक्तों को दुःखरूप द्वैत में ही आनन्द हो यह कैसे हो सकता है? अतः यह सिद्ध हुआ कि समस्त जीवों एवं उन सबके नियामक तथा आराध्य भगवान को द्वैतदर्शन में सुख का लेश भी नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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