भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
अत: शुक्र का चन्द्रमा से उद्गम न होने से उसके साथ शुक्र का कोई विशेष सम्बन्ध होना सिद्ध नहीं होता, किन्तु परमात्मा से उद्गम और उससे विशेष सम्बन्ध रखने वाले जीव का अंशाशिभाव अन्तरंग ही होना चाहिये। अतः जैसे घटोपाधि से घटाकाश महाकाश का अंश कहा जाता है, वायु उपाधि से तरंग महासमुद्र का अंश है, उसी तरह अविद्या या अन्तःकरण उपाधि से जीव परमात्मा का अंश कहा जाता है। उपधियों के विक्षोभ में उपहित का अनुपहित से पार्थक्य और उनकी उपशान्ति में उपहित का अनुपहित से ऐक्य होता है। जिस समय आकाश से वायु-जलादि क्रमेण घट उत्पन्न होता है, उस समय घटाकाश की उत्पत्ति एवं महाकाश से उसके पार्थक्य की प्रतीति होती है। घट का विलयन होने पर घटाकाश का महाकाश के साथ सम्मिलन प्रतीत होता है। वायु के स्पन्दनकाल में महासमुद्र से तरंग की उत्पत्ति एवं उसकी समुद्र से भिन्नता प्रतीत होती है और वायु के निःस्पन्दनकाल में तरंग का विलयन प्रतीत होता है। निरावरण तथा द्रवीभूत जल की अभिव्यक्ति में बिम्ब से प्रतिबिम्ब की उत्पति एवं बिम्ब से भिन्नता प्रतीत होती है और जल के सारवण होने पर या शैत्ययोग से घनीभूत होने पर प्रतिबिम्ब की बिम्बभावापत्ति होती है। इन सभी उदाहरणों से केवल यही बात दिखलायी जाती है कि जैसे स्वभाव से घटाकाश, तरंग तथा प्रतिबिम्ब महाकाश, महासमुद्र एवं बिम्ब से पृथक नहीं हैं, उनसे भिन्नता एवं विलक्षणता उपाधि से प्रतीत होती है, वैसे ही जीव स्वभावतः बह्म से भिन्न नहीं है। उसमें भिन्नता एवं परमात्मा से विलक्षणता केवल उपाधियों से प्रतीत होती है। जैसे महाप्रलय में समस्त प्रपंच समष्टि सबीज ब्रह्म में विलीन होता है, वैसे ही सुषुप्ति में भी समस्त प्रपंच का विलयन श्रुति ने कहा है। अतः सुषुप्ति में उपाधियों के विलीन होने पर जीव परमात्मा से मिलता है। जब तक जल निरावरण एवं द्रुत रहता है, तब तक उसकी चंचलता एवं मलिनता से प्रतिबिम्ब भी चंचल एवं मलिन प्रतीत होता है। ऐसे ही अन्तःकरण जब तक निरावरणस्वरूपेण व्यक्त रहता है, तब तक उसमें प्रतिबिम्बित चिदानन्द तत्त्व भी उसकी व्याकुलता एवं मलिनता से व्याकुल एवं मलिन सा रहता है। यही बात “ध्यायतीव लेलायतीव” इस श्रुति में कही गयी है। परन्तु जिस समय अविद्यापरिणाम अन्तःकरण अविद्या में विलीन हो जाय या निद्रारूप गाढ़ आवरण से आवृत हो जाय, उस समय जैसे जल के सावरण एवं घनीभाव में प्रतिबिम्ब बिम्ब ही हो जाता है। बिम्ब से पृथक रहता ही नहीं, अतः उससे किसी प्रकार के अनर्थ का सम्बन्ध नहीं होता; ठीक वैसे ही सुषुप्ति में जीव परमात्मा में मिल जाता है, पृथक उसका स्वरूप ही नहीं रहता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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